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________________ दर्शनान्तर अभ्यास क्रम में ज्ञान विकास में अन्य दर्शनों की परिभाषाओं को आत्मसात् करने का प्रयल है तथा परमत खण्डन के साथ-साथ जल्पकथा का भी अवलम्बन देखा जाता है। आगम युग से लेकर जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण तक ज्ञान विकास की भूमिकाओं को छह भागों में विभक्त कर सकते हैं। सातवीं उनके उत्तरवर्ती आचार्य की हो सकती है1. कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक युग, 2. नियुक्तिगत, 3. अनुयोगगत, 4. तत्त्वार्थगत, 5. सिद्धसेनीय, 6. जिनभद्रीय एवं 7. उत्तरवर्ती आचार्य परम्परा। कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक युग कर्मशास्त्रीय तथा आगमिक भूमिका में मति या अभिनिबोध आदि पांच ज्ञानों के नाम मिलते हैं तथा इन्हीं नामों के आस-पास में स्वदर्शन अभ्यास जनित ज्ञान के भेद-प्रभेदों का विचार दृष्टिगोचर होता है। नियुक्तिगत ज्ञानमीमांसा नियुक्तियों को आगम की प्रथम व्याख्या माना गया है। नियुक्ति का यह भाग श्री विक्रम की दूसरी शताब्दी का माना जाता है। उसमें पंचविधज्ञान चर्चा है तथा नियुक्ति में मति और अभिनिबोध शब्द के अतिरिक्त संज्ञा स्मृति आदि पर्यायवाची शब्दों की वृद्धि देखी जाती है तथा उसमें ज्ञान के प्रत्यक्ष एवं परोक्ष-ये दो विभाग भी उपलब्ध हैं। यह वर्गीकरण न्यूनाधिक रूप से अन्य दर्शनों के अभ्यास का सूचक है। अनुयोग गत आर्यरक्षित 'अनुयोगद्वार सूत्र' जिसको विक्रम की दूसरी शताब्दी का माना जाता है। उसमें अक्षपादीय न्यायसूत्र के चार प्रमाणों का तथा उसी के अनुमान संबंधी भेद-प्रभेदों का संग्रह है, जो दर्शनान्तरीय अभ्यास का असंदिग्ध प्रमाण है। आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार में पंचविध ज्ञान को सम्मुख रखते हुए भी न्यायदर्शन के प्रसिद्ध प्रमाण विभाग को तथा उसकी चार भाषाओं को जैन विचार क्षेत्र में लाने का सर्वप्रथम प्रयत्न किया है। अनुयोग द्वार के प्रारम्भ में ही ज्ञान के पांच भेद बताये गए हैं। ज्ञानप्रमाण के विवेचन को ज्ञानप्रमाण के भेदरूप में बता देते किन्तु ऐसा न करके उन्होंने नैयायिकों में प्रसिद्ध चार प्रमाणों को ही ज्ञान प्रमाण के भेदरूप में सूचित किया है। तत्त्वार्थगत-ज्ञान विकास की चतुर्थ भूमिका तत्त्वार्थसूत्र एवं उसके स्वरचित भाष्य में उपलब्ध है। यह विक्रम की तीसरी शताब्दी की कृति है। वाचक ने नियुक्ति प्रतिपादित प्रत्यक्ष एवं परोक्ष प्रमाण का उल्लेख किया है तथा अनुयोगद्वार में स्वीकृत न्यायदर्शनीय चतुर्विध प्रमाण विभाग की ओर उदासीनता व्यक्त की है। वाचन के इस विचार का यह प्रभाव पड़ा कि उनके उत्तरवर्ती किसी भी तार्किक ने चतुर्विध प्रमाण को कोई स्थान नहीं दिया। आचार्य आर्यरक्षित सूरि जैसे प्रतिष्ठित अनुयोगधर के द्वारा एक बार जैन श्रुत में स्थान पाने के कारण न्यायदर्शनीय चतुर्विध प्रमाण भगवती आदि प्रमाणभूत माने जाने वाले आगमों में हमेशा के लिए संगृहीत हो गया। वाचक ने मीमांसा आदि दर्शनान्तर में प्रसिद्ध 197 15 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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