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________________ विशेषतः प्रमाण संग्रह में है, वह उनकी अपनी महत्त्वपूर्ण चिन्तना है। उनमें अष्टसहस्री, प्रमाण-मीमांसा आदि ग्रंथों में भी ज्ञान एवं प्रमाण संबंधी विशद चर्चा उपलब्ध है। उपाध्याय यशोविजय ने 'ज्ञानबिन्दु प्रकरण' में सम्पूर्ण अध-प्रभूति ज्ञानमीमांसा का सार तत्त्व प्रस्तुत कर दिया। नयदृष्टि से अनेकों विचारणीय मुद्दों का समाधान भी उपाध्यायजी के ग्रंथों में परिलक्षित है। इसके अतिरिक्त ज्ञान संबंधी अनेक नए विचार भी ज्ञानबिन्दु में सन्निविष्ट हैं, जो उनके पूर्व के ग्रंथों में प्राप्त नहीं है। जैसे अवग्रह आदि की तुलना न्याय आदि दर्शनों में आगत कारणांश, व्यापारांश आदि से की है। ज्ञानमीमांसा के परिवर्तन, परिशोधन में अनेक आचार्यों का योगदान रहा है। विशेष बात यह है कि ज्ञान के आगमिक मौलिक स्वरूप एवं भेद आदि का कहीं भी अतिक्रमण नहीं हुआ है। - उपाध्याय यशोविजयजी विद्वान् तो थे ही, साथ में वे ज्ञानी भी थे। विद्वान् तो कभी तर्कों के जाल में फंस जाता है लेकिन ज्ञानी ज्ञानमार्ग पर आरूढ़ होकर सिद्धि को प्राप्त करता है, क्योंकि उसको यह ज्ञान है कि तत्त्वज्ञान ही सिद्धि का मुख्य सोपान है। .. उपाध्याय यशोविजय की यह महानता थी कि वे जो कुछ लिखते थे, वही स्वयं को आज्ञा दिखाकर पूर्वाचार्यों को विद्वत् बताते थे और यह नम्रता का गुण ज्ञान के बल पर ही आ सकता है। जिस प्रकार फलों से वृक्ष बन जाता है, झुक जाता है, वैसे ही उपाध्याय यशोविजय ज्ञानगुणों की नम्रता से नम्रतम बनते गये और इस ज्ञान की नम्रता ने ही उनको ज्ञान के उच्चस्थान पर आरूढ़ कर दिया था। . न्याय विषयक एवं रहस्य से अंकित 100 ग्रंथ आज भी उनकी ज्ञान गरिमा को गौरवान्वित करने में अपनी सफलता प्रदर्शित कर रहे हैं। आज भी ये ग्रंथ हमें प्रेरणा दे रहे हैं कि उपाध्याय यशोविजय का जीवन ज्ञान की सरिता में कितना आकण्ठ निमग्न होगा। ज्ञान को जीवन में कितना स्थान दिया होगा, जो हमारे जीवन में अत्यावश्यक है। ज्ञान के बिना जीवन शून्य है। ज्ञानाद ऋते न मुक्ति-ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं है। ज्ञान की परिभाषा में भेद-प्रभेद आगम ग्रंथों में ज्ञान की व्युत्पत्ति हमें इस प्रकार मिलती है ज्ञानदर्शनमिति भाव साधन संविदित्यर्थ ज्ञायते वाऽनेनास्माद्वैति ज्ञानं। तदावरण क्षयक्षयोपशम परिणाम युक्तो जाना इति वा ज्ञानम्।। जानना वह ज्ञान है। यहाँ भाव में अनट् प्रत्यय है अथवा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय, क्षयोपशम से जो बोध होता है, वह ज्ञान कहलाता है अथवा ज्ञानावरणीय कर्म के क्षय अथवा क्षयोपशम रूप परिणाम युक्त जो बोध होता है, वह ज्ञान है। जैन शासन में ज्ञान के पाँच प्रकार बताये गए हैं-मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान और केवलज्ञान। इनमें मतिज्ञान और श्रुतज्ञान परोक्ष ज्ञान हैं और शेष तीन ज्ञान प्रत्यक्ष हैं। जिसके द्वारा तत्त्व का यथार्थ स्वरूप जाना जाए, उसे ज्ञान कहते हैं। 'ज्ञायते परिच्छिद्यते वस्त्वनेति ज्ञानम्' अर्थात् जानना ज्ञान है, या जिसके द्वारा जाना जाए, उसे ज्ञान कहते हैं। 199 For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org Jain Education International
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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