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________________ विविध प्रकार का ऋतुभेद जगत् में प्रसिद्ध है। वह हेतु बिना नहीं हो सकता है, जिससे काल ही उसका कारण है। जैसे कि आम्र आदि वृक्ष अन्य सभी कारण होने पर भी फल रहित होते हैं। इससे वे विविध शक्ति वाले कालद्रव्य की अपेक्षा रखते हैं। कालद्रव्य यदि न स्वीकारें तो वर्तमान, भूत, भविष्य का कथन भी नहीं होगा तथा पदार्थों का परस्पर मिश्र हो जाने की संभावना बन जायेगी। कारण कि पदार्थों का नियामक काल न हो तो अतीत अथवा अनागत पदार्थ भी वर्तमान रूप में कह सकते हैं। उससे नियामक काल है ही, यह मानना योग्य है। तथा काल नामक छट्ठा द्रव्य उपाध्याय यशोविजय कृत द्रव्य, गुण, पर्याय के रास में भी उल्लिखित है। इसमें उपाध्याय ने कालद्रव्य को अपरिणामी, अजीव, अमूर्त, अप्रदेशी, क्षेत्री, अक्रिय, नित्य, कारण, कती, असर्वगत एवं अप्रदेश रूप कहा है।75 काल द्रव्य मनुष्यलोक में विद्यमान है। जम्बूद्वीप, घातकीखंड तथा अर्धपुष्करावद्वीप इस प्रकार ढाई द्वीप में ही मनुष्य होते हैं। अतः इन ढाई द्वीप को ही मनुष्यलोक कहते हैं। काल द्रव्य का परिणमन या कार्य इस ढाई द्वीप में देखा जाता है। यह अत्यन्त सूक्ष्म तथा अविभागी एक समय शुद्ध कालद्रव्य है। यह एक प्रदेशी होने के कारण अस्तिकाय नहीं कहा जाता है, क्योंकि प्रदेशों के समुदाय को अस्तिकाय कहते हैं। यह एक समय मात्र होने से निःप्रदेशी है। षड्दर्शन समुच्चय की टीका में इसका उल्लेख मिलता है तस्मान्मानुष लोकव्यापी कालेऽस्ति समय एक इह। एकत्वाच्च स कायो न भवति कायो हि समुदाय।।76 अर्थात् काल द्रव्य एक समय रूप है तथा मनुष्यलोक में व्याप्त है। वह एक प्रदेशी होने से अस्तिकाय नहीं कहा जा सकता, क्योंकि काय तो प्रदेशों के समुदाय को कहते हैं। श्वेताम्बर परम्परा में काल का स्वरूप तत्त्वार्थ सूत्रकार ने श्वेताम्बर संस्करण में काल का प्रतिपादन इस प्रकार किया है कालश्चैत्येके। सोऽनन्तसमयः।18 अर्थात् काल को भी द्रव्य मानते हैं, वह अनन्त समय वाला है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार काल औपचारिक द्रव्य है। निश्चयदृष्टि में काल जीव और अजीव की पर्याय है और व्यवहार दृष्टि में यह द्रव्य है। संक्षेप में कह सकते हैं कि काल स्वयं में कोई स्वतंत्र वस्तु सापेक्ष वास्तविकता नहीं है किन्तु वस्तु सापेक्ष वास्तविकताओं का ही एक अंग पर्याय है। ____ अन्य आचार्यों की मान्यता के अनुसार नैश्चयिक काल वास्तविक द्रव्य है, जबकि व्यावहारिक काल नैश्चयिक काल का पर्याय रूप है। दिगम्बर परम्परा में काल का स्वरूप दिगम्बर परम्परा में नेमीचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्ती काल के विषय में द्रव्यसंग्रह में लिखते हैं दव्वपरिवट्टरूवो जो सो कालो हवेइ ववहारो। परिणामादिलक्खो वट्टण लक्खो व परमट्ठो।। 167 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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