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________________ लोयायपदेशे इककोकके जे ट्ठिया हु इक्केक्का। क्यणाणं शसीमिव से कालाणू असंख दव्वाणि / / 280 जो द्रव्यों के परिवर्तन रूप परिणाम रूप देखा जाता है, वह तो व्यावहारिक काल है और वर्तना लक्षण का धारक जो काल है, वह नैश्चयिक काल है। जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश में रत्नों की राशि के समान परस्पर भिन्न होकर एक-एक स्थित है, वे कालाणु हैं और असंख्यात द्रव्य हैं। श्वेताम्बर परम्परा में काल को केवल जीव और अजीव के पर्याय रूप माना गया है। दिगम्बर परम्परा में नैश्चयिक काल को वस्तु सापेक्ष स्वतंत्र वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया गया है। वैज्ञानिक विश्व में काल की अवधारणा वैज्ञानिक जगत् में सारा अनुसंधान केवल व्यावहारिक काल तक ही सीमित है। विज्ञान ने Unit of Time का मानदण्ड प्रस्थापित करते हुए कहा है कि एक इलेक्ट्रोन, प्रोजिट्रोन की मंदगति से आकाश के एक प्रदेश से दूसरे प्रदेश तक जाने में लगने वाला काल ही समय है। अनुसंधान क्षेत्र में सेकेण्ड को परिभाषित करने का प्रयत्न किया है, जैसे-सीजियम / 81 133 परमाणु की आधारभूत अवस्था में अतिसूक्ष्म स्तरों में होने वाले 9,19,26,31,770 विकीरणों की अवधि एक सेकेण्ड के बराबर होती है। * प्रोफेसर एडिंगटन ने कहा है-पुद्गल की अपेक्षा समय भौतिक वास्तविकता या सत्ता का विशेष है। काल एक संबंध है, उसमें सातत्य एवं परिवर्तन है। अतीत मरता नहीं है, वर्तमान में जीवित रहता है और भविष्य में प्रवाहित होता रहता है। वैज्ञानिक आइन्स्टाइन के अनुसार काल एवं आकाश स्वतंत्र वस्तु नहीं हैं। ये द्रव्य या पदार्थ के धर्म हैं। जैन दर्शन ने काल को वस्तु, पदार्थ का धर्म नहीं अपितु स्वतंत्र निरपेक्ष द्रव्य के रूप में माना है। - भारतीय दर्शनों में काल वैदिक दर्शनों में काल के संबंध में नैश्चयिक और व्यावहारिक दोनों पक्ष मिलते हैं। नैयायिक एवं वैशेषिक काल को सर्वव्यापी और स्वतंत्र द्रव्य मानते हैं। . जन्यानां जनकः कालो जगतमाश्रतो मतः।१४४ योग, सांख्य आदि दर्शन काल को स्वतंत्र द्रव्य नहीं मानते।289 न्याय दर्शन के अनुसार परत्व, अपरत्व आदि काल के लिंग हैं परापरत्वधिर्हेतु क्षणादिः स्यादुपाधितः / वैशेषिक पूर्व, अचर, युगपत्, अयुगपत्, चिर और क्षिप्र को काल के लिंग मानते हैं।285 बौद्ध परम्परा में पं. महेन्द्रकुमार न्यायाचार्य ने लिखा है-काल केवल व्यवहार के लिए कल्पित होता है। यह कोई स्वभाव सिद्ध पदार्थ नहीं है, प्रज्ञप्ति मात्र है।285 पाश्चात्य दर्शन में काल का स्वरूप एपिकयुरस ने काल को स्वतंत्र तत्त्व के रूप में स्वीकार कर उसे वस्तु सापेक्ष वास्तविकता माना है।287 प्लुटो ने माना कि ईश्वर ने सृष्टि की रचना के साथ काल को बनाया अर्थात् प्लुटो ने काल को एक काल्पनिक वास्तविकता के रूप में स्वीकार किया। 168 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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