________________ षड्दर्शन समुच्चय की टीका में कहा है-सूर्य, चन्द्र, ग्रह, नक्षत्र के उदय एवं अस्त होने से काल उत्पन्न होता है।258 काल लक्षण-धर्मसंग्रहणी में काल का लक्षण स्पष्ट करते हैं जं वत्तणादिरूपो कालो दव्वस्स चेव पज्जातो। सो चेव ततो धम्मो कालस्स व जस्स जोलोए।।259 वर्तनादिरूप काल धर्मास्तिकाय आदि द्रव्य के ही पर्याय हैं, उसमें वह वर्तनादिरूप काल, यह उसका लक्षण एवं धर्म है, क्योंकि अभिधान राजेन्द्रकोश में वर्तनादि को ही काल का लक्षण बताया है वर्तना लक्षणः कालः पर्यवद्रव्य मिष्यते / न्यायालोक में उपाध्याय यशोविजय ने काल का लक्षण इस प्रकार किया है वर्तनालक्षणः कालः।। काल द्रव्य का लक्षण वर्तना है। वर्तना यानी पदार्थ का नया-पुराना परिणाम। काल का वर्तना परिणाम क्रिया आदि उपकार है। तत्त्वार्थकार ने काल की पहचान वर्तनादि से ही. दी है वर्तना परिणाम किया परत्वापरत्वे च कालस्य / 262 इसी प्रकार लोकप्रकाश,265 उत्तराध्ययन सूत्र, बृहद्रव्य-संग्रह,265 द्रव्य-गुण-पर्याय-रास,266 श्री अनुयोग हरिभद्रीय वृत्ति,267 तत्त्वार्थ टीका,26 न्यायाखंडन-खाद्य,269 महापुराण आदि में भी काल का लक्षण मिलता है। वैशेषिक आदि ने काल को एक व्यापक और नित्य द्रव्य माना है और वह काल नाम का पदार्थ . विशेष जीवादि वस्तु से भिन्न किसी स्थान में प्राप्त नहीं होता है। लोकप्रकाश में भी कहा है कि अन्य आचार्यों के मतानुसार जीवादि के पर्याय ही वर्तना आदि काल हैं। उसमें काल नामक अन्य पृथक् द्रव्य नहीं है, लेकिन यह बात युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि काल द्रव्य नहीं मानने से पूर्व, अपर, परत्व, अपरत्व आदि कुछ भी घटित नहीं होगा और यह प्रत्यक्ष विरोध हो जायेगा, क्योंकि हम स्वयं नया, पुराना, वर्तना आदि अनुभव करते हैं और नित्य मानने पर तो कुछ भी फेर-फार नहीं हो सकता। अतः पर्याय को द्रव्य से कथंचिद भिन्न माना जाए तो काल-पर्याय से विशिष्ट जीवादि वस्तु भी काल शब्द से वाच्य बन सकती है, जिसके लिए आगमपाठ भी साक्षी रूप में है किमयं भंते? कालोति.पवुच्चइ, गोयमा? जीवा चेव अजीवा चेवति। काल किसे कहते हैं? हे गौतम! जीव और अजीव काल स्वरूप है। जो पृथ्वी पर काल रूप भिन्न द्रव्य न हो तो वृक्षों का एक ही साथ में पत्र, पुष्प और फल की उत्पत्ति होनी चाहिए। बालक का शरीर कोमल, युवा पुरुष का शरीर दैदीप्यमान और वृद्ध का शरीर जीर्ण होता है। यह सभी बाल्यादि अवस्था काल के बिना कैसे घटित होगी? छः ऋतुओं का दिन एवं रात का अनेक प्रकार का परिणाम पृथ्वी पर अत्यन्त प्रसिद्ध है। वह भी काल के बिना संभावित नहीं है। 166 13 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org