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________________ नाम का कोई द्रव्य न होता तो जीव एवं पुद्गल का गतिपरिणत करते अलोक में भी कभी-कभी चले जाते। किन्तु ऐसा नहीं होता है। जीव एवं पुद्गल द्रव्य रात-दिन गति करने के बाद भी 14 राजलोक के बाहर अलोकाकाश में नहीं जा सकता है। इसलिए वहाँ जीव एवं पुद्गल की गति नहीं होती है। धर्मास्तिकाय द्रव्य राजलोक तक ही सीमित है इसलिए जीव एवं पुद्गल की गति भी 14 राजलोक में ही होती है। ___ धर्मास्तिकाय के प्रतिपक्ष अधर्मास्तिकाय है? धर्मद्रव्य की तरह अधर्म द्रव्य सम्पूर्ण लोकाकाश में व्याप्त है। इसका अस्तित्व भी लोकाकाश तक ही सीमित है। अधर्म द्रव्य भी अभौतिक है, अपरामाणाविक है। किसी से निर्मित नहीं है, अनादि-अनन्त है। यह अमूर्तिक अरूपी द्रव्य है तथा वर्णशून्य, गंधशून्य, रस-स्पर्श शून्य एक द्रव्य है, अखण्ड है, असंख्यात प्रदेश युक्त है। यह द्रव्य चेतन एवं अचेतन पदार्थों को ठहरने से स्थिर होने में निमित्तभूत द्रव्य है, जैसे - स्थिति सहायोऽधर्मः स्थित्य साधारण सहायोऽधर्माः / / स्थानगतानां जीवपुद्गलानां स्थितौ उदाससीनभावेन अनन्यसहायकं द्रव्य अधर्मास्तिकायः यथा पथिकानां छाया। जीव और पुद्गलों की स्थिति में सहायक होने वाले द्रव्य को अधर्म कहते हैं। जिस प्रकार धर्म जीव व पुद्गलों की गति में उदासीन भाव से अनन्य सहायक है, उसी प्रकार जीव और पुद्गल की स्थिति में उदासीन भाव से अनन्य सहायक तत्त्व अधर्म है। अधर्म द्रव्य के सहावदान को समझने के लिए एक परंपरित दृष्टान्त, उदाहरण है-वृक्ष की घनी छाया एवं थका हुआ मुसाफिर। वृक्ष की छाया में प्रवासी जाकर रुक जाता है। वृक्ष, मुसाफिर से पहले भी था. बाद में भी रहेगा। वक्ष ने प्रवासी को रोका नहीं, क्योंकि वह प्रेरक शक्ति नहीं है। सिर्फ रुकने वाले के निमित्त बन सकता है। उपाध्याय यशोविजय ने कहा है स्थितिलक्षणोऽधर्मास्तिकायः। अधर्मास्तिकाय का लक्षण है-स्थिति। जीव एवं पुद्गल की स्थिति क्रिया प्रत्ये अधर्मास्तिकाय सहकारी कारण है। अधर्मास्तिकाय की सिद्धि से प्रमाण विद्यमान है। अगर अधर्मास्तिकाय नाम का द्रव्य न होता तो जीव एवं पुद्गल की स्थिति संभव न होती। तब पूरे लोकाकाश में जीव एवं पुद्गल गति करने ही रहता पर ऐसा नहीं होता है। अलोक में जीव एवं पुद्गल में गति ही नहीं है तो स्थिति का तो प्रश्न ही नहीं रह सकता। अतः अधर्म तत्त्व भी लोकाकाश यानी 14 राजलोक तक ही सीमित है। स्थिर परिणाम को प्राप्त किये हुए जीव और पुद्गलों की स्थिति परिणाम को अवलम्बन अमूर्त असंख्यात प्रदेशों का समूह अधर्मास्तिकाय है। जीवाजीवाभिगम टीका,15 समवायांगवृत्ति,16 में इसी प्रकार की व्याख्या मिलती है। प्रदेश रूप में असंख्यात प्रदेशात्मक होने पर भी द्रव्यार्थ रूप से एकत्व होने से धर्मास्तिकाय एक है। धर्मास्तिकाय एवं अधर्मास्तिकाय का लक्षण एवं इन दो द्रव्यों से जीव को क्या लाभ होता है, वो भगवतीसूत्र में इस प्रकार मिलता है। 151 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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