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________________ धर्मास्तिकाय से जीवों का आगमन, गमन, भाषा, उन्मेष आँखें खोलना, मनयोग, वचनयोग और काययोग की प्रवृत्ति होती है। इसी प्रकार दूसरे जितने भी चलभाव गमनशील भाव हैं, वे सब धर्मास्तिकाय के द्वारा प्रवृत्त होते हैं। धर्मास्तिकाय का लक्षण गतिरूप है गइलक्खणे णं धम्मत्यिकाए। अधर्मास्तिकाय से जीवों का स्थान, निषीदन, सोना, मन को एकाग्र करना आदि तथा इसी प्रकार से अन्य जितने भी स्थित भाव हैं, वे सब अधर्मास्तिकाय को प्रवृत्त होते हैं। अधर्मास्तिकाय का लक्षण स्थितिरूप है ठाणे लक्खणे णं अहम्मत्यिकाए। इसी प्रकार का लक्षण उत्तराध्ययन सूत्र,18 उत्तराध्ययन बृहद् टीका,1 स्थानांग,160 स्थानांगवृत्ति, प्रज्ञापना टीका, बृहद् द्रव्यसंग्रह, पंचास्तिकाय, प्रशमरति,16 अनुयोगमलधारीयवृत्ति,166 जीवाजीवाभिगमवृत्तिा आदि में मिलता है। पाँच द्रव्यों में से धर्म और अधर्म द्रव्य के असंख्य प्रदेश हैं अर्थात् प्रत्येक द्रव्य असंख्यात असंख्य है। तत्त्वार्थ सूत्रकार उमास्वाति ने भी कहा है ___ असंख्येया प्रदेशा धर्माधर्मयोः / प्रदेश शब्द से आपेक्षिक और सबके सूक्ष्म परमाणु का अवगाह समझना चाहिए। धर्मास्तिकायअधर्मास्तिकाय असंख्यात प्रदेशी होने पर भी अखण्ड है, क्योंकि उसके समान जाति-गुण वाला द्रव्य अन्य कोई भी नहीं है तथा ये निष्क्रिय हैं, जैसे कि कहा निष्क्रियाणी च। .धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, अपर्ण, अगन्ध, अरस, अस्पर्श, अरूपी, अजीव, शाश्वत, अवस्थित और लोक का अंशभूत द्रव्य है अर्थात् पंचास्तिकाय लोक का एक अंश है। वह संक्षेप पाँच प्रकार का है, जैसा कि द्रव्य की दृष्टि से-ये दोनों द्रव्य एक अखण्ड स्वतंत्र वस्तुनिष्ठ हैं। क्षेत्र की दृष्टि से ये दोनों समस्त लोक में व्याप्त समरूप सातत्यक के रूप में हैं। इनका अस्तित्व केवल लोक-अलोक तक सीमित है। अलोक आकाश में इसका अभाव है। लोक आकाश के जितने प्रदेश हैं, उतने ही प्रदेश इनके हैं। संख्या की दृष्टि से ये प्रदेश असंख्यात हैं। काल की दृष्टि से इनका अस्तित्व अनादि अनन्त और अनन्त है अर्थात् शाश्वत है। भाव अर्थात् स्वरूप की दृष्टि से ये अमूर्त (वर्ण आदि गुणों से रहित), अभौतिक और चैतन्य रहित (अजीव) तथा स्वयं अगतिशील हैं। गुण या लक्षण की दृष्टि से-धर्म द्रव्य, गति सहायक तथा अधर्म द्रव्य स्थिति सहायक हैं। धर्म द्रव्य और अधर्म द्रव्य को मानने के लिए हमारे सामने मुख्यतया दो यौक्तिक दृष्टियां हैं1. गति स्थिति निमित्तक द्रव्य, 2. लोक-अलोक की विभाजक शक्ति। 152 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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