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________________ यहाँ धर्म-अधर्म से पुण्य-पाप को अथवा वैशेषिकों के माने हुए गुण-विशेष को नहीं समझना चाहिए किन्तु ये तो अपने आप में स्वतंत्र सत्ता वाले द्रव्य हैं, जैसे कि आगे बताया जायेगा कि पुण्य-पाप तो कर्म के भेद हैं. जिनका वर्णन कर्ममीमांसा में किया जायेगा लेकिन महाप्रज्ञ जैन दर्शनकारों ने तो धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय की एक निरूपम एवं निराली व्याख्या निरूपित की है, जो हमें आगम ग्रंथों में उपाध्याय यशोविजय के ग्रंथों में एवं उत्तरकालीन जैनाचार्यों के साहित्य में स्पष्ट रूप से मिलते हैं, जैसे कि जीवानां पुद्गलानां च स्वभावतः एव गति परिणाम परिणतानां तत्स्वभावधारणात तत्स्वभाव पोषणादधर्म अस्तयचेह प्रदेशाः तेषां कायः सङ्घातः गुणकाए य निकाए खंधे वग्गे तहेव रासी य इति वचनात् अस्तिकाय प्रदेश संघात इत्यर्था धर्मश्वासौ अस्तिकायस्व धर्मास्तिकायः। . अपने स्वभाव से गतिपरिणाम प्राप्त किए हुए जीव और पुद्गलों के गतिस्वभाव को धारण करने, पोषण करने से धर्म कहलाता है तथा अस्ति अर्थात् प्रदेशों उनका काय अर्थात् समूह / कारण कि गण, काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग तथा राशि-ये पर्यायवाची शब्द हैं। अतः अस्तिकाय यानी प्रदेशों का समूह। इससे परिपूर्ण धर्मास्तिकय रूप अवयवी द्रव्य कहलाता है। अवयवी अर्थात् उस प्रकार का संघातरूप परिणाम विशेष है। परन्तु अवयव द्रव्यों से भिन्न द्रव्य नहीं है। कारण कि भिन्न स्वरूप में उसका बोध नहीं होता है। लम्बाई और चौड़ाई में संघात रूप से परिणाम विशेष को प्राप्त तन्तुओं को लोक में पट के नाम से पुकारते हैं। लेकिन तन्तुओं से भिन्न पट नाम का द्रव्य नहीं है। इस सम्बन्ध में अन्य आचार्यों ने भी कहा-तन्तु आदि से भिन्न पटादि का ज्ञान नहीं होता है परन्तु विशिष्ट तत्त्वादि का ही पटादि रूप में व्यवहार होता है। यही बात अनुयोग हरिभद्रीय तथा अनुयोगमलधारीयवृत्ति से भी है। ____ गतिसहायो धर्म-गमनप्रवृतानां जीवपुद्गलानां गतौ उदासीनभावेन अनन्यसहायक द्रव्य धर्मास्तिकाय, यथा-मत्स्यानां जलम गति में सहायक होने वाले द्रव्य को धर्म कहते हैं। धर्मास्तिकाय के अभाव में जीव या पुद्गल किसी भी प्रकार की गतिक्रिया करने में असमर्थ हैं। मछली में गति करने की शक्ति होती है पर पानी के अभाव में वह गति नहीं कर सकती। ट्रेन में चलने की शक्ति है, पर पटरी के अभाव में वह चल नहीं सकती। ठीक यही बात धर्मास्तिकाय के संबंध में जाननी चाहिए। प्राणी और पुद्गल में गति करने की शक्ति है पर वे गतिक्रिया तभी कर सकते हैं, जब उन्हें धर्मास्तिकाय का अनिवार्य रूप से सहयोग प्राप्त हो। यहाँ एक बात और समझनी चाहिए कि वह किसी को गति करने के लिए प्रेरित नहीं करता। हाँ, कोई उसका सहयोग ले तो वह इनकार भी नहीं करता। मध्यस्थ भाव से वह सहयोगी बनता है। इसलिए धर्मास्तिकाय को जीव और पुद्गल की गति में उदासीन भाव से अनन्य सहयोगी के रूप में माना गया है गति लक्षणो धर्मास्तिकाय। उपाध्याय यशोविजय ने कहा है-धर्मास्तिकाय द्रव्य गति लक्षण है अर्थात् गति वह धर्मास्तिकाय का लक्षण है। धर्मास्तिकाय का स्वीकार अप्रामाणिक नहीं है, क्योंकि उनका साधक आगम प्रमाण होने के साथ अनुमान प्रमाण भी है। जैसे जीवादि द्रव्य से अतिरिक्त द्रव्य विद्यमान है, क्योंकि गतिपरिणत होने के बाद भी जीव एवं पुद्गल द्रव्य का अलोक में आगमन अन्यथा अनुपान्न है। अगर धर्मास्तिकाय 150 12 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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