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________________ अंगप्रविष्ट में कहा है-धर्म द्रव्य एक है, लोक व्याप्त है, शाश्वत है, वर्णशून्य है, रसशून्य, गंधशून्य एवं स्पर्शशून्य है। जीव एवं पुद्गल की गति में, क्रिया में सहायक है। धर्मद्रव्य अरूपी, अजीव, शाश्वत लोक व्याप्त द्रव्य है। धर्म द्रव्य अस्तिकाय है, क्योंकि वह असंख्य प्रदेश युक्त, परिपूर्ण, निरवशेष है। प्रदेश वस्तु के अविभक्त सूक्ष्मतम अंश को कहते हैं। धर्म द्रव्य का एक परमाणु जितना अंश एक प्रदेश कहलाता है। उन समस्त प्रदेशों की एक वाच्यता धर्मास्तिकाय है। ___व्याख्याप्रज्ञप्ति लोक' में जीवों का आगमन, गमन, बोलना, पलकें खोलना, मानसिक, वाचिक एवं कायिक तथा अन्य जितनी भी गतिशील प्रवृत्तियाँ हैं, धर्मद्रव्य के सहयोग से ही सम्पन्न होती है। धर्मास्तिकाय के अभाव में लोक-अलोक की व्यवस्था भी नहीं बनती। 45 अन्य दार्शनिक परम्पराओं में आकाश आदि पदार्थों का उल्लेख मिलता है, किन्तु गतित्व या स्थितित्व के रूप में कहीं भी स्वतंत्र तत्त्व का उल्लेख दृष्टिगोचर नहीं होता। वैज्ञानिक क्षेत्र में इसकी चर्चा कुछ अंश में मिलती है। इस चराचर विश्व का अवलोकन करने पर हमें जो कुछ दिखाई देता है, वह दो विभागों में विभक्त किया जा सकता है-जड़ और चेतन। हमें जो पेड़-पौधे, प्राणी और मनुष्यादि दिखाई देते हैं, वे सब चेतन अर्थात् सजीव हैं। उनमें से जब चेतन चला जाता है तब वे अचेतन अर्थात् जड़ हो जाते हैं। अन्य दार्शनिकों ने जितने भी मूलतत्त्व माने हैं, उन सबका समावेश सजीव और निर्जीव-इन दो तत्त्वों में हो जाता है। __ लेकिन जैन दार्शनिकों का चिन्तन इस विषय में कुछ और विशिष्ट है। उन्होंने अचेतन के विभिन्न गुणधर्मानुसार उसका भी वर्गीकरण किया है। उन्होंने अनुभव किया कि सचेतन और अचेतन अपने गुणध र्मानुसार कुछ-न-कुछ कार्य करते ही हैं। वे कहीं-न-कहीं स्थित रहते हैं और उनका अवस्थान्तर होता है। ये स्थानान्तरण करते हैं और कहीं स्थिर होते हैं। सचेतन, अचेतन के इन कार्यों में सहायक होने वाले तत्त्व इनसे भिन्न गुणधर्म वाले हैं। अतः वे मूल तत्त्व हैं। ऐसे और मूलतत्त्व चार हैं। मूलतत्त्व ही मूलद्रव्य है। जैन चिन्तकों ने मूल छः द्रव्य माने हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय, पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय और काल। धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल और जीव प्रदेशवान हैं अतः ये अस्तिकाय हैं। काल का कोई प्रदेश नहीं है इसलिए काल अप्रदेशी काय होने से अस्तिकाय नहीं है। यद्यपि धर्म-अधर्म-आकाश-पुद्गल और काल का समावेश अजीव तत्त्व में ही होता है फिर भी इनमें से प्रत्येक के गुण, धर्म, कार्य भिन्न-भिन्न होने से मूल द्रव्य माने गए हैं। यहाँ हमारा मुख्य बिन्दु धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय के विषय में चिन्तन करना है। यद्यपि दर्शन जगत् में सर्वज्ञ काल, कर्म, सिद्धि आदि विषयों को लेकर सभी दर्शनकारों ने अपनी-अपनी वैभवता वं अनुसार चिन्तन-मन्थन प्रस्तुत किया है किन्तु धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय यह जैन-दर्शन की मौलिक मान्यता है। इसके विषय में किसी दर्शनकार ने न चर्चा की है और न ही कुछ आलेखन किया है। इससे यह ज्ञात होता है कि शायद वे लोग इस विषय से अपरीचित, अनभिज्ञ होंगे। 149 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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