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________________ आचारांग की टीका में अस्ति शब्द निपातवाचक कहा है अस्तिशब्दश्चायं निपातस्त्रिकाल विषय। इसी प्रकार अस्ति शब्द निपातवाचक भगवती टीका आदि में भी मिलता है। यह अस्तिकाय शब्द आगमों में जब जीव-अजीव का निरूपण करते हैं तब धर्मास्तिकायअधर्मास्तिकाय आदि में अस्तिकाय शब्द का प्रयोग मिलता है। किन्तु उनके स्थान पर द्रव्य, तत्त्व और पदार्थ शब्द का प्रयोग नहीं हुआ है, जो आगमों की प्राचीनता का प्रतीक है। धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय और आकाशास्तिकाय-इन तीनों को देश, प्रदेश, स्कन्ध आदि भेदों में विभक्त किया है किन्तु अस्तिकाय शब्द का अर्थ कहीं पर भी मूल आगम में नहीं दिया गया है। लेकिन उत्तरवर्ती आचार्यों ने आगमों की टीकाओं, वृत्तियों, चूर्णियों, अन्य शास्त्र ग्रंथों में अस्तिकाय शब्द को लेकर विचार-विमर्श किया है, जो आज भी सर्वोपरी मान्य है। ___ अस्ति शब्द का अर्थ प्रदेश होता है इसलिए उनके समूह को अस्तिकाय कहते हैं अथवा अस्ति शब्द निपात है और तीनों कालों का बोधक है। अस्ति वर्तमान में, भूतकाल में और भविष्य में भी रहता है। उन प्रदेशों का समूह अस्तिकाय कहलाता है। प्रज्ञापना की टीका में अस्ति यानी प्रदेशों का समूह है। कारण की काय, निकाय, स्कन्ध, वर्ग और राशि-ये पर्यायवाची शब्द हैं। अस्तिकाय अर्थात् प्रदेशों का समूह / अस्तिकाय प्रदेशों का समूह ऐसी व्याख्या समवायांग टीका, षड्दर्शन समुच्चय टीका,135 जीवाजीवाभिगम टीका,1% अनुयोगमलधारीयवृत्ति टीका,137 स्थानांग टीका18 आदि अनेक आगम ग्रंथों में भी मिलती है। पंचास्तिकाय में अस्तिकाय की व्याख्या दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द ने इस प्रकार की है-जिनका विविध गुणों और पर्यायों के साथ अपनत्व है, वे अस्तिकाय हैं और उससे तीन लोक निष्पन्न होते हैं। इसी के तात्पर्य वृत्तिकार आचार्य जयसेन ने अस्तिकाय की व्युत्पत्ति इस प्रकार की है। अस्तिकाय अर्थात् सत्ता, स्वभाव तन्मयत्व स्वरूप है। इसी अस्तित्व और काया शरीर को ही कहते हैं। बहुप्रदेश प्रचय फैले होने से शरीर को ही काय कहते हैं और उन पंचास्तिकाय द्वारा तीनों लोकों की उत्पत्ति होती है अर्थात् विश्व व्यवस्था में इनका महत्त्वपूर्ण योग है। 40 - अस्तिकाय को लेकर उत्तरवर्ती शास्त्रों में किसी अन्य दार्शनिकों से चर्चा हुई हो, ऐसा प्रायः जानने में नहीं आया है। लेकिन जैनागमों का पंचम व्याख्या-प्रज्ञप्ति, जिसे भगवतीजी नाम से संबोधित करते हैं, उसमें अन्य दर्शनीयों का महावीर स्वामी, गौतम स्वामी एवं मुद्रुक श्रावक के साथ अस्तिकाय की चर्चा का कुछ स्वरूप मिलता है, वह इस प्रकार है भगवती के 18वें शतक के सातवें उद्देशक में मुद्रुक श्रावक का अन्य तीर्थयों से वाद का प्रमाण मिलता है। वह इस प्रकार है___उस समय राजगृह नाम का नगर था। गुणशील चैत्य था। उसमें पृथ्वी शिलापट्ट था। गुणशील चैत्य के समीप बहुत अन्य तीर्थक निवास करते हैं, यथा-कालादेयी शैलोदायी इत्यादि उपरोक्त यह कैसे जाना जा सकता है। 146 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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