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________________ उत्तराध्ययन सूत्र में छः द्रव्य की प्ररूपणा की गई तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकायये तीनों द्रव्य एकत्व विशिष्ट संख्या वाले हैं तथा पुद्गलास्तिकाय, जीवास्तिकाय, काल-ये तीनों द्रव्य अनन्तानंत हैं, ऐसा जिनेश्वरों ने कहा है। 28 द्रव्य में सामान्य तथा विशेष गुण भी पाये जाते हैं। द्रव्य नित्य-अनित्य, एक-अनेक, सत्-असत् तथा वक्तव्य-अवक्तव्य रूप से भी जाना जाता है। वैशेषिक नैयायिकों ने नव द्रव्य की मान्यता स्वीकारी है, जो जैन दर्शन के द्रव्यवाद से सर्वथा भिन्न है। अस्तिकाय द्रव्य व्युत्पत्ति की दृष्टि से अस्तिकाय दो शब्दों के संयोग से बना है-अस्ति+काय-अस्तिकाय। अस्तयः प्रदेशाः तेषां कायः संघात-अस्तिकाय। अस्ति का अर्थ है-सत्ता, अस्तित्व, विद्यमानता। काय का अर्थ है-समूह। अस्तिकाय-अनेक प्रदेशों का समूह। प्रदेश-आकाश के लघुतम अविभागी अंश को प्रदेश कहते हैं। एक पुद्गल परमाणु आकाश में जितना स्थान व्याप्त करता है, उसे प्रदेश कहते हैं। द्रव्य, प्रदेश प्रचय होने के कारण अस्तिकाय है। छह द्रव्यों में धर्म, अधर्म, आकाश, पुद्गल एवं जीव अस्तिकाय रूप द्रव्य है। काल द्रव्य अनस्तिकाय है। जो बहुप्रदेशी द्रव्य है, वह अस्तिकाय है। जो द्रव्य जितने क्षेत्र का अवगाहन करता है, वही उसका विस्तार प्रदेश प्रचयत्व (कायत्व) है। कायत्व का अर्थ (Extention) समूह के अतिरिक्त विस्तार भी है। विस्तार सहित जो द्रव्य हैं, वे अस्तिकाय हैं। अस्तिकाय जैन दर्शन की अपनी निराली अवधारणा है, जिस पर किसी दर्शन का मत-मतान्तर अथवा मान्यता नहीं है। जो अस्ति शब्द क्रियावाचक बनकर ही सम्प्रचलित था, उसे ही कर्तृत्व में स्वीकृत करने हेतु जैनाचार्यों ने व्याकरण के विद्वानों के वचनों से प्रदेश अर्थ प्रचलित करके नियम को एक अभिनव मोड़ दिया है। ऐसा अस्ति शब्द का अर्थ अन्यत्र सुलभ नहीं है, यह तो जैनाचार्यों की ही दूरदर्शिता है। अस्ति शब्द को यदि क्रियापरक स्वीकार करते हैं तो केवल वर्तमान से जुड़े रहते हैं। भूतकाल से वंचित बन जाते हैं तथा अनागत से अवांछित रहेंगे। शास्त्र जगत् में उक्ति शब्द निपातनार्थक बनकर त्रिकालबोधक हो जाता है। ऐसा महावैयाकरणों का विनिश्चय है, जैसे कि अस्तीत्ययं त्रिकालवचनो निपातः अभूवन भवन्ति, भविष्यन्ति चेति भावना। इससे अस्ति त्रिकालबोधक अर्थ वाला सिद्ध होकर जैन वाङ्मय में अस्तिकाय संयोजित . हुआ है। शकटायन न्याय ने भी अस्ति शब्द को निपात अर्थ में वाचित किया है अस्तीति निपातः सर्वलिङ्गचनेस्विति / / 145 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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