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________________ उस राजगृह नगर में धनाढ्य यावत् किसी से भी पराभूत नहीं होने वाला जीवाजीवादि तत्त्वों का ज्ञाता, मुद्रुक नाम का श्रमणोपासक रहता था। अन्यदा किसी दिन श्रमण भगवन्त महावीर स्वामी वहां पधारे। समवसरण की रचना एवं बार पर्षदा उनकी पर्युपासना करने लगी। भगवान महावीर का आगम सुनकर मुद्रुक श्रावक का मन मयूर नृत्य करने लगा। स्नान आदि से निवृत होकर सुन्दर अलंकारों से अलंकृत बनकर प्रसन्नचित्त होकर घर से निकला और पैदल चलता हुआ उन अन्यतीर्थिकों के समीप होकर जाने लगा। उन अन्यतीर्थिकों ने मुद्रुक श्रावक को जाता हुआ देखा और परस्पर एक-दूसरे से कहा-हे देवानुप्रिय! वह मुद्रुक श्रावक जा रहा है। हमें वह अविदित एवं असंभव तत्त्व पूछता है तो देवानुप्रिय! हमें मुद्रुक श्रमणोपासक को पूछना उचित है। ऐसा विचार कर तथा परस्पर एकमत होकर वे अन्यतीर्थिक मुद्रुक श्रमणोपासक के निकट आये और मुद्रुक श्रमणोपासक से इस प्रकार पूछा तुम्हारे धर्माचार्य श्रमण ज्ञातपुत्र महावीर पचि अस्तिकाय की प्ररूपणा करते हैं। यह कैसे माना जाए? मुद्रुक श्रमणोपासक ने कहा-वस्तु के कार्य से उसका अस्तित्व जाना और देखा जा सकता है। बिना कारण के कार्य दिखाई नहीं देता। अन्यतीर्थिकों ने मुद्रुक श्रमणोपासक पर आक्षेप पूर्वक कहा-हे मुद्रुक! तू कैसा श्रमणोपासक है कि जो तू पंचास्तिकाय को जानता, देखता नहीं है, फिर भी मानता है। मुद्रुक श्रमणोपासक ने अन्यतीर्थिकों से कहा-हे आयुष्यमान्! वायु बहती है, क्या यह ठीक है? उत्तर-हाँ यह ठीक है। प्रश्न-हे आयुष्यमान्! बहती हुई वायु का रूप तुम देखते हो? उत्तर-वायु का रूप दिखाई नहीं देता है। प्रश्न-हे आयुष्यमान्! गन्ध गुण वाले पुद्गल हैं। उत्तर-हाँ, हैं। प्रश्न-आयुष्यमान्! तुम उन गन्ध वाले पुद्गलों के रूप को देखते हो? उत्तर-यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न-हे आयुष्यमान्! क्या तुम अरणी की लकड़ी में रही हुई अग्नि का रूप देखते हो? उत्तर-यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न-हे आयुष्यमान्! समुद्र के उस पार पदार्थ हैं? उत्तर-हाँ, हैं। प्रश्न-हे आयुष्मान्! तुम समुद्र के उस पार रहे उन पदार्थों को देखते हो? . उत्तर-यह अर्थ समर्थ नहीं है। प्रश्न-हे आयुष्यमान्! क्या तुम देवलोक में रहे हुए पदार्थों को देखते हो? उत्तर-यह अर्थ समर्थ नहीं है। हे आयुष्यमान्! मैं, तुम या अन्य कोई भी छद्मस्थ मनुष्य जिन पदार्थों को नहीं देखते, उन सभी का अस्तित्व नहीं माना जाए तो तुम्हारी मान्यतानुसार तो लोक के बहुत से पदार्थों का अभाव हो जायेगा। इस प्रकार मुद्रुक श्रमणोपासक ने उन अन्यतीर्थियों का पराभव किया और निरूत्तर किये। उन्हें निरूत्तर 147 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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