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________________ वस्तु पर्यायवद द्रव्यम्।105 जो पदार्थ पर्याय के समान परिणत होता है, वह द्रव्य है, क्योंकि पर्याय से रहित द्रव्य का रहना असंभवित है। अतः धर्म से, धर्मी से और धर्मधर्मी से जो युक्त हो, वह द्रव्य है अथवा गौण और मुख्य से जो संयुक्त हो, वह द्रव्य है एवं द्रव्य विशेषण और वैशिष्ट्य से विशिष्ट होता है। अथवा द्रव्यस्यलक्षणे स्थिति स्थिति यह द्रव्य का लक्षण है। उपाध्यायजी ने स्थिति को द्रव्य का लक्षण स्वीकारा है और उन्होंने अपनी टीका में यह भी लिखा है कि कोई आचार्य गति भी द्रव्य का लक्षण स्वीकारते हैं, जैसे कि गई परिणयं गई चेव णियमेण दवियमिच्छन्ति।106 कुछ लोक नियम से गति परिणत को ही द्रव्य मानते हैं अर्थात् द्रव्य की गति अर्थात् परिवर्तन वह द्रव्य निश्चय से कहलाता है। तर्क निष्णात महोपाध्याय यशोविजय म.सा. ने भी द्रव्य गुणं पर्याय के रास में द्रव्य का लक्षण इसी प्रकार प्रस्तुत किया है गुण पर्यायतणू जे भाजन एकरूप त्रिहुकालि रे। तेह द्रव्य निज जाति कहिइ जस नहीं भेद विचलाई रे।। प्रत्येक द्रव्य अपने-अपने गुण और पर्याय की त्रिकालिक सत्ता शक्ति से हमेशा सम्पन्न रहता है। अर्थात् किसी भी द्रव्य के स्वयं के गुण से विच्छेद नहीं होते हैं, फिर भी व्यवहार-नय से परस्पर संयोग, संबंध होने से परपरिणामी रूप है। जो जगत् में अनेक चित्र, विविध परिणाम प्रत्यक्ष दिखते हैं फिर भी कोई भी पुद्गलद्रव्य कभी भी जीव रूप नहीं बनता। उसी प्रकार जीव द्रव्य पुद्गल रूप नहीं बनता। अतः जो-जो निज-निज जाति अनेक जीवद्रव्यों, अनंता पुद्गलद्रव्यों तथा धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय, आकाशास्तिकाय और काल छहों ही द्रव्य हमेशा अपने-अपने गुण-भाव में परिणमित होते हैं। फिर भी व्यवहार से संसारी जीवों की कर्म-संयोग से जो पुद्गल परिणामिता है, वह संयोग संबंध से ही है। द्रव्य की इसी प्रकार की व्याख्या उत्तराध्ययन सूत्र, न्यायविनिश्चय,10 परमात्मप्रकाश में भी मिलती है। भगवती सूत्र की टीका में महातार्किक सिद्धसेन दिवाकरसूरि द्रव्य के विषय में सर्वज्ञ परमात्मा को प्रणेता कहकर द्रव्य का लक्षण निर्दिष्ट करते हैंएतत् सूत्रसंवादि सिद्धसेनाचार्योऽपि आह उप्पश्रमाण कालं उप्पण्णं विगयय विगच्छन्तं देवियं पण्णवयंतो त्रिकालविसयं विसेसई।" सूत्रसंवादि आचार्य सिद्धसेन अपने पूर्वजों अर्थात् तीर्थंकरों को द्रव्य के प्ररूपक कहकर द्रव्य की विशिष्टता सिद्ध करते हैं। वे कहते हैं कि मैं नहीं लेकिन सर्वज्ञ तीर्थंकर भगवान कहते हैं-द्रव्य त्रिकाल विशेष है। अर्थात् द्रव्य भूत, भविष्य और वर्तमान-तीनों कालों में अवस्थित रहता है, वह द्रव्य है। श्रीमरावश्यक सूत्र नियुक्ति की अवचूर्णि में द्रव्यलक्षणअतो भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणमिति द्रव्य लक्षण सम्भवात् द्रव्यमिति।" भूत और भविष्य के भाव का जो कारण है, वह द्रव्य कहलाता है। 141 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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