________________ द्रव्य का लक्षण गुणपर्यायोः स्थानयमेकरूपं सदापि यत्। स्वजात्या द्रव्यमाख्यातं मध्य भेदो नतस्य वै।।102 गुण और पर्याय का जो आश्रय हो, तीनों काल में जो एकरूप हो, स्थिर हो, अपनी जाति में रहने वाला हो परन्तु पर्याय की भांति जो परावृत्ति को प्राप्त नहीं करता हो, वह द्रव्य कहलाता है, जैसे कि-ज्ञान, दर्शन, चारित्र, तप-वीर्य आदि गुण का आधारभूत जीव द्रव्य। रूप, रस, गंध आदि का आश्रयभूत पुद्गलद्रव्य तथा स्थास, कोश कुशल कपाट घटत्वादि पर्याय का आश्रयस्थान मुदद्रव्य जो तीनों काल में स्थिर रहता है। तत्त्वार्थ राजवार्तिक में द्रव्य की भिन्न-भिन्न परिभाषा दी गई है, जैसे कि अनागतपरिणामविशेष प्रतिगृहिताभिमुख्ये द्रव्यं / भविष्य में परिणामों के प्रति स्वीकार कर लिया है। सन्मुखपना ऐसे द्रव्य कहलाते हैं। - यद्भाविपरिणामप्राप्तिं प्रति योग्यता आदधानं तदद्रव्यमित्युच्यते। .' जो भविष्य के परिणामों को प्राप्त करने के प्रति अपनी आत्मा योग्रूता को धारण करने वाले हैं, वे द्रव्य कहलाते हैं द्रोष्यते गम्यते गणे द्वोष्यति गमिष्यति गुणानिति वा द्रव्यं / द्रव्य उसे कहते हैं, जिसका गुणों के द्वारा ज्ञान होता रहे अथवा गुणों से द्रव्य का ज्ञान होने वाला है अथवा होगा, ऐसा अर्थ संभावित है।109 पंचास्तिकाय में दिगम्बराचार्य कुन्दकुन्द ने द्रव्य का लक्षण इस प्रकार बताया है दव्वं सल्लकखणयं उप्पादव्वधुवतसंजुतं, गुणपज्जयस्सयं पा जं तं भण्णंति सव्वण्हू।" इसमें आचार्यश्री ने द्रव्य का लक्षण तीन प्रकार से किया है। जो सत् लक्षण वाला है, उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य युक्त है और गुण पर्यायों का आश्रय है, उसे सर्वज्ञ देव ने द्रव्य कहा है। टीकाकार दिगम्बराचार्य जयसेन इन तीनों लक्षणों की विशेषता बताते हुए कहते हैं कि-दव्वं सल्लकखणय-द्रव्य का लक्षण सत् है। यह कथन बौद्धों जैसे शिष्यों को समझाने के लिए द्रव्यार्थिक नय से किया है। उत्पादव्ययंधुवतसंजुतं-द्रव्य उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य से सहित है। यह लक्षण सांख्य और नैयायिक जैसे शिष्यों के बोध के लिए पर्यायार्थिक नय से किया गया है। गुणपज्जयासयं वा-द्रव्य गुण पर्यायों का आधारभूत है। यह लक्षण भी सांख्य और नैयायिक जैसे शिष्यों को समझाने के लिए पर्यायार्थिक नय से किया गया है। राजवार्तिक में ऐसा कहा गया है कि जो इन तीन लक्षणों वाला हो, वह द्रव्य है। ऐसा सर्वज्ञदेव कहते हैं। उपाध्याय यशोविजयजी अनेकान्त व्यवस्था प्रकरण में शास्त्रों को सम्मान देते हुए, आगमों को आदर देते हुए तथा सिद्धसेन दिवाकर एवं जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण जेसे आगमज्ञ, महातार्किक महापुरुषों को साक्षीभूत बनाते हुए अपनी बुद्धि, वैभव को विक्स्वर करते हुए द्रव्य का लक्षण संलिखित किया है। उन्होंने द्रव्य को धर्म से, धर्मी से, धर्मधर्मी से, मुख्य और गौणभाव से तथा विशेषण और वैशिष्ट्य से घटाया है। 140 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org