________________ जैन आगमों की द्वादशांगी चारों अनुयोगों में व्यवस्थित रूप से प्रस्तुत की गई है, जिसमें द्रव्यानुयोग का महत्त्वपूर्ण स्थान रहा है। द्रव्यानुयोग ही आत्मवाद, अध्यात्मवाद आदि विषयों में सारगर्भित सत्य का स्पष्टीकरण करता है। दृष्टिवाद के अग्गेणीयं नामक दूसरे पूर्व में द्रव्यानुयोग को वर्णित किया गया है। ऐसी अवधारणा शास्त्रीय परम्पराओं में प्रचलित है। नन्दीसूत्र नाम के महामंगल ग्रंथ की टीका में आचार्यश्री ने इस प्रकार व्याख्यायित किया हैवितियं अग्गेणियं तत्थवि सव्वदव्वाण पज्जवाण य सव्वजीवा जीवविसेसाण य अग्गं परिमाणे वन्निज्जति ति अग्गेणीयं / इस द्वितीय प्रवाद में सभी द्रव्यों एवं पर्यायों का पूर्णतया पर्यालोचन हुआ है। हमारे द्रव्यानुयोग का मूलाधार दृष्टिवाद ही प्रमुख है और उन दृष्टिवाद के विषयों का विस्तार यत्र-तत्र टीकाग्रंथों में उल्लेखित हुआ है। यद्यपि सम्पूर्ण दृष्टिवाद तो उच्छेद ही है, तथापि उपाध्याय यशोविजय जैसे महान, अनुयोगधरों ने इस विषय की शोध करके इनके सारांशों को समुल्लिखित किये हैं। अन्य दर्शनों में भी द्रव्य विषयक चर्चा मिलती है। व्याकरण की दृष्टि से द्रव्य की व्युत्पत्ति इस प्रकार उपलब्ध होती है। दुगतौ धातु से द्रवति तांस्तान स्व पर्यायान् प्राप्नोति मुश्चति वा इति तद् द्रव्यम्। द्रव्य उसको कहते हैं, जो द्रवित होता है। उन-उन अपने पर्यायों को प्राप्त भी करता है और छोड़ . भी देता है। सतायाम तस्या एव अवयवो विकारो वा इति द्रव्यम् अवान्तर सतारूपाणि हि द्रव्याणि महासताया अवयपा विकाश वा भवन्ति एव इति भाव। दु धातु सता के अर्थ में भी है। उसका अवयव अथवा विकार द्रव्य कहलाता है। अलग-अलग जो द्रव्य के रूप में मिलते हैं, वे महासता के अवयव अथवा विकार होते हैं। जैसे कि रूप रसादि गुणों का समुदाय घट वह द्रव्य है। भविष्य में होने वाले पर्याय की जो योग्यता है, वह भी द्रव्य है। जैसे राज बालक भविष्य में युवराज महाराज बनने के योग्य है। अतः राजबालक रूप में द्रव्य कहलाता है। भूतकाल में भाव पर्याय जिसमें रहे हुए थे, वह द्रव्य भूतभाव द्रव्य कहलाता है। जैसे कि घी का आधारभूत घृत घट आज खाली है तथा पूर्व में उसमें घी भरा हुआ था। अतः यह घृतघट कहलाता है। वह भी द्रव्य है। जो भूतकालीन भव्य बना हुआ था, जिसके लिए अनागत की संभावना रहती है, जो वर्तमान में अकिंचन है, फिर भी वह योग्यता का धारक है तो वह द्रव्य है, क्योंकि योग्यता कभी भी सीमाओं में बंधी हुई नहीं होती है। वह कभी भी प्रगट हो सकती है। आचार्य हरिभद्रसूरि के अनुयोगवृत्ति, नन्दीवृत्ति, तथा नन्दीसूत्र में भी निम्नोक्त द्रव्य की परिभाषा मिलती है तत्र द्रवति गच्छति तांस्तान पर्यायानिति द्रव्य। उन-उन पर्यायों को जो प्राप्त करता है, वह द्रव्य कहलाता है। आवश्यकसूत्रावचूर्णि, पंचास्तिकायवृत्ति.०० और तत्त्वार्थ राजवार्तिकमें द्रव्य की व्याख्या की है। 139 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org