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________________ शास्त्रवार्ता समुच्चयकार कहते हैं कि लोक विषयकमत एवं ईश्वर कर्तृत्व अभिमत न्याय सिद्धान्त से मनुष्य स्वीकार कर लेता है, परन्तु जब वही व्यक्ति जिनवाणी को यदि स्मृति में ले लेता है तो वह जगत् स्वाभाविक है। इसका कोई कर्ता नहीं, ऐसा स्वीकार कर लेता है। जैसे बदरी फल के रस को चखकर संतोषित रहने वाला व्यक्ति तब तक ही प्रसन्न रहता है, जब तक विशेष द्राक्षफल का माधुर्य प्राप्त नहीं करता। इसी बात को टीकाकार उपाध्याय यशोविजय म.सा. ने श्लोकरूप से संबद्ध की है। श्रुत्वैवं सकृदेनमीश्वरपरं सांख्यऽक्षपादागम। लोको विस्मयमातनोति न गिरो यावत् स्मेरदार्हतीः। किं तावदूदरीफलेऽवि न मुहुर्म धुर्यमुन्नीयते यावत्वीनरसा रसाद रसनया द्राक्षा न साक्षात्कृता / / सांख्य और नैयायिकों के ईश्वरपरक एक बार भी वचन सुनकर यह जन-समुदाय विश्वस्त हो जाता है। जब वही जन-समुह तीर्थंकर वाणी का श्रवण करता है और स्मरण बढ़ाता है तो परम विस्मय को प्राप्त करता है। जैसे कि बदरी फल को चखकर मधुरता को प्राप्त कर लेता है, वही यदि अपनी जिह्वा से दाक्ष फल चख लेता है और माधुर्य जिह्वा से गले में उतार लेता है तो वह बदरी फल को चखना भूल जाता है। वैसे ही जिनवाणी को जो स्वीकार कर लेता है तो सांख्य वादियों के विचारों को नैयायिक ईश्वरवाद को भूलकर भी याद नहीं करता है। .. अंत में उपाध्याय यशोविजय के अनुसार यह लोक पंचास्तिकायात्मक है, साथ में जीव जीवात्मक चराचरात्मक रूप से भी अपने ग्रंथों में उजागर किया है। उनका विशाल दृष्टिकोण शास्त्रवार्ता समुच्चय की टीका में प्रतिभासित होता है। यह लोक 14 रज्जु प्रमाण है। सम्पूर्ण लोक का आकार सुप्रतिष्ठित वज्र के समान है। यह निराश्रय निराधार निरालम्ब रूप से आकाश में प्रतिष्ठित है। फिर भी अपने-अपने अस्तित्व से हमेशा सिद्ध है। ऐसी प्रतीति होने में लोक स्थिति ही कारण है। - इस प्रकार हम कह सकते हैं कि जैन दर्शन में लोकवाद का समग्र सिद्धान्त बहुत ही व्यवस्थित, गणितीय, वैज्ञानिक तथा तर्कगम्य रूप से प्रस्तुत है। . उपाध्याय यशोविजय के दृष्टिकोण में लोकवाद रहस्य निरापवाद रूप से समुल्लिखित किया गया है। ऐसा मेरा मन्तव्य है। द्रव्य गुण पर्याय भेदाभेद दार्शनिक जगत् में तत्त्वमीमांसा का प्रमुख स्थान है। द्रव्य तत्त्वमीमांसा का एक विशिष्ट अंग माना जाता है। जो अस्तित्ववान हो, वह द्रव्य कहलाता है। दु धातु के साथ य प्रत्यय के योग से निष्पन्न द्रव्य शब्द का अर्थ है-योग्य। जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं की प्राप्ति के योग्य हो, उसे द्रव्य कहा जाता है। व्युत्पत्ति की दृष्टि से विचार करें तो-'अदुवत, द्रवति, द्रोष्यति, तांस्तान पर्यायान इति द्रव्यं', जो भिन्न-भिन्न अवस्थाओं को प्राप्त हुआ प्राप्त होता है और प्राप्त होगा, वह द्रव्य है। तात्पर्यार्थ की भाषा में कहें तो उत्पाद और विनाश होते रहने पर भी जो ध्रुव रहता है, वही द्रव्य है। 138 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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