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________________ उत्पत्ति मानते हैं। सांख्य इस सृष्टि को प्रकृतिकृत मानते हैं। बौद्ध इस जगत् को क्षणिक विज्ञानरूप कहते हैं। ब्रह्मा अद्वैतवादी जगत् को एक जीव रूप कहते हैं तो कोई वादी इसे अनेक जीवरूप भी मानते हैं। कोई इसे पूर्व कर्मों से निष्पन्न कहते हैं तो कोई स्वभाव से उत्पन्न बताते हैं। कोई अक्षर से समुत्पन्न भूतों द्वारा इस जगत् की उत्पत्ति बताते हैं। कोई इसे अण्ड से उत्पन्न बताते हैं। आश्रमी इसे अहेतुक कहते हैं। पूरण जगत् को नियतिजन्य मानते हैं। पराशर इसे परिणामजन्य कहते हैं। कोई इसे यादृदच्छिक अनियत हेतु मानते हैं। इस प्रकार अनेक वादि इसे अनेकरूप से मानते हैं। इस प्रकार लोक विषयक विभिन्न मान्यताएँ हैं। ____षड्दर्शन समुच्चय के टीकाकार गुणरत्नसूरि ने सभी दर्शनवादियों की विचारधाराओं को सम्मिलित कर प्रत्येक को निरस्त करने का प्रयास जैनमत से किया है। ___कलिकाल सर्वत्र आचार्य हेमचन्द्रसूरि ने वीतराग स्तोत्र में जगत् कर्तृत्ववाद का निरास करते हुए कहा है सृष्टिवाद कुहेवाक मुन्मुच्योत्यप्रमाणकम्, त्वच्छासने रमन्ते ते येषां नाथ प्रसीदसि / सृष्टिवाद विषयक जो अन्य दार्शनिकों का दुर्वाद है, वह त्याज्य है, क्योंकि वह अप्रामाणिक है। इसलिए हे नाथ! तुम्हारे शासन में जो रमण करते हैं, उनके ऊपर आप प्रसन्न रहते हैं अर्थात् जगत् / का कर्ता है, हे प्रभु! आपने मान्य नहीं किया है। आगमिक अनुसंधानों में ईश्वर कर्तृत्ववाद को अमान्य किया है, जैसे-सूत्रकृतांगकार कहते हैं इणमन्न तु अन्नाणं इहमेगेसि आहियं देवउते अयं लोए वंभं उतेति आवरे। ईसरेण कडे लोए, पहाणाइ तहावरे, जीवाजीव समाउते सुहदुकखस मन्निए, सयंभुण कडेलोए इति वुतं महेसिणा, मारेण संथुआ माया तेणलोए असासए। सृष्टि विषयक सर्जक स्वीकार करना यह एक महान् अज्ञान है। कुछ लोग यह कहते हैं कि यह लोक देवकृत है अथवा ब्रह्मा सर्जित है अथवा ईश्वरकृत लोक है। जीव और अजीव से युक्त यह संसार सुखों से और दुःखों से ओतप्रोत है। ऐसा यह जगत् स्वयंभू के द्वारा सर्जित हुआ है, ऐसा महर्षियों ने कहा है। कामदेव के द्वारा माया प्रशंसनीय हुई है। उस कारण से यह लोक अशाश्वत है। ललित विस्तरा में आचार्य हरिभद्रसूरि मुताणं मोअगाणं पर चर्चा करते हुए कहते हैं कि जगत् के कर्ता को हीन-मध्यम-उत्कृष्ट रूप में जीवों को उत्पन्न करने में क्या लाभ? क्योंकि वह जगत् का कर्ता यदि निरीह है तो फिर इच्छा, संकल्प, द्वेष, मात्सर्य आदि संभव नहीं है अतः जगत्कर्तृत्व मत को दूषित बतलाते हैं। जगत्कर्तुत्वमते च दोषाः।" 137 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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