________________ भगवती में पंचास्तिकायात्मक लोक कहा है। किमिवं भंते! लोए ति पवुच्चई? गोयमो। पंचत्थिकाया एस णं पवतिए लोए ति पवुच्चई।।” आचार्य हरिभद्रसूरि ने अनादिविंशिका में पंचास्तिकाय लोक कहा है पंचत्थिकायमइओ अणाइयं वट्टए इमो लोगो। न परमपुरिसाइकओ पमाणमित्थं च वयणं तु / / पंचास्तिकायमय यह लोक अनादि से रहा हुआ है और परम पुरुष ऐसे ईश्वर द्वारा रचित नहीं है और इस विषय में सर्वज्ञ का वचन आगम प्रमाण है। .. लोक प्रकाश में पंचास्तिकाय स्वरूप द्रव्यलोक कहा है ____ एक पंचास्तिकाय द्रव्यतो लोक इष्यते।" _ इसी प्रकार दशवैकालिकवृत्ति, ध्यानशतक वृत्ति, अनुयोग मलधारीय वृत्ति, तत्त्वार्थ टीका, षड्दर्शन समुच्चय, ललित विस्तारावृत्ति, ध्यानशतक," तत्त्वार्थ भाष्य आदि ग्रंथों में पंचास्तिकायात्मक लोक कहा है। षड्दर्शन समुच्चय की टीका में षड्द्रव्यात्मक लोक भी कहा है ___ ये तु कालं द्रव्यमिच्छन्ति, तन्मते षड्द्रव्यात्मको लोक। - जो आचार्य काल को स्वतंत्र द्रव्य मानते हैं, उनके मतानुसार लोक में छहों ही द्रव्य पाये जाते हैं। असंख्य लोक षड्द्रव्यात्मक है। जैनशास्त्र में जीव और अजीव तथा पंचास्तिकायमय आदि लोक कहा है जबकि अंगुतरनिकाय में भगवान बुद्ध ने पांच कामगुण रूप रसादि-ये ही लोक है और कहा है कि इन पांच काम को जो त्याग करता है, वह लोक के अंत भाग में पहुंच जाता है। षड्दर्शन समुच्चय आचार्य हरिभद्रसूरि की अनुपम कृति है। इसके टीकाकार आचार्य गुणरत्नसूरि एक समयज्ञ सुधी हैं, जिन्होंने षड्दर्शन समुच्चय की टीका में लोक के स्वरूप को प्रतिपादित करते हुए इस प्रकार कहा है लोक स्वरूपेऽप्यनेके वादिनोऽनेकधा विप्रवदन्ते। लोक के स्वरूप में ही अनेकों वादी अनेक प्रकार की कल्पनाएँ करते हैं। कोई इस जगत् की उत्पत्ति महेश्वर से मानते हैं, कोई सोम और अग्नि से संसार की सृष्टि कहते हैं। वैशेषिक षट् पदार्थ रूप ही जगत् को मानते हैं। कोई जन्तु की उत्पत्ति ब्रह्म से कहते हैं, कोई दक्ष प्रजापतिकृत जगत् को बतलाते हैं। कोई ब्रह्मादि त्रिमूर्ति से सृष्टि की उत्पत्ति कहते हैं। वैष्णव विष्णु से जगत् की सृष्टि मानते हैं। पौराणिक कहते हैं-विष्णु के नाभिकमल से ब्रह्मा उत्पन्न होते हैं। ब्रह्माजी अदिति आदि जगन्माताओं की सृष्टि करते हैं। इन जगन्माताओं से संसार की सृष्टि होती है। कोई वर्ण व्यवस्था से रहित इस वर्णशून्य जगत् को ब्रह्मा ने चतुर्वर्णमय बनाया है। कोई संसार को कालकृत कहते हैं। कोई उसे पृथ्वी आदि अष्टमूर्तिवाले ईश्वर के द्वारा रचा हुआ कहते हैं। कोई ब्रह्मा के मुख आदि से ब्राह्मण आदि की 136 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org