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________________ बहुश्रुतदर्शी आचार्य हभिद्रसूरि ने नन्दीवृत्ति, अनुयोग हरिभद्रीय वृत्ति में भी इस प्रकार का लक्षण किया है। द्रव्यलक्षणं चंद-भूतस्य भाविनो वा भावस्य हि कारणं तु यल्लोके। तइद्रव्यं तत्वज्ञैः सचेतनाचेतनं कथिदम।। लोक में जो भूत, भविष्य के भाव का कारण हो, ऐसे चेतन अथवा अचेतन को तत्वज्ञ पुरुषों ने द्रव्य कहा है। आवश्यकहारिभद्रीय15 और नन्दीसूत्र16 में भी यही लक्षण मिलता है। विशेषावश्यकभाष्य में द्रव्य के लक्षण को संप्रस्तुत करते हैं उप्पायविगतिओऽवि दव्वलकरवणे।। उत्पाद, नाश और ध्रुव से जो युक्त हो, वह द्रव्य कहलाता है। आचार्य सिद्धसेनसूरि ने सन्मतितर्क में द्रव्य का लक्षण बताया है दव्वं पज्जवविजुअंदव्वविउता य पज्जवा नत्थि। उप्पायट्ठिइ भंगा हंदि दवियलकरवणयं एयं / / " पर्याय से रहित द्रव्य और द्रव्य से रहित पर्याय कभी नहीं हो सकते। अतः उत्पत्ति, नाश और स्थिति अर्थात् तीनों धर्मों से संयोजित द्रव्य का लक्षण है, जो हमारा अनुभूत विषय है। लोक तत्त्व निर्णय में आचार्य हरिभद्र ने द्रव्य सम्बन्धी निरूपण किया है मूर्ताऽमूर्त द्रव्यं सर्वं न विनाशामेति नान्यत्वम्। तदैत्योत्पाय पर्यायविनाशी जैनानाम्। - विश्व का विराट स्वरूप षड्द्रव्यात्मकमय है, जो मूर्त अथवा अमूर्त दोनों के संग से संस्थित है। जगत् में रूपी अथवा अरूपी कोई भी मूल द्रव्य पदार्थ कभी भी सर्वथा विनाश नहीं होता है अर्थात् जगत् में से उसे द्रव्य का सर्वथा अभाव नहीं होता है तथा मूल द्रव्य सम्पूर्ण परिवर्तित होकर अन्य द्रव्य रूप में नहीं होता है, जैसे-धर्मास्तिकाय अधर्मास्तिकाय कभी नहीं बनता है। यहाँ द्रव्य का रूपी और अरूपी होना वह उसका स्वयं का लक्षण है। यदि वैसा लक्षण वस्तु का न हो तो वह वस्तु को वन्ध्यासूत्र के समान अविद्यमान जानना अर्थात् फिर उस वस्तु का अस्तित्व ही नहीं रहेगा, जैसे कि द्रव्यमरूप्पमरूपि च यदिहास्ति हि तत्स्पलक्षणे सर्वम् / तल्लक्षणं न यस्य तु तघन्ध्यापुतवद ग्राहयम्।।120 द्रव्य विषयक विमर्श स्याद्वाद सिद्धान्त में बहुत ही विलक्षण रहा है। सिद्धान्त सूत्रकार एवं श्रुत र भगवान उमास्वाति का द्रव्य प्ररूपण प्रज्ञामय रहा है। इसी मान्यता को महत्त्व देते हुए तत्त्वार्थ सूत्र में कहा है गुणवर्यायवद द्रव्यम् / / गुण और पर्याय दोनों जिसमें रहे, उसको द्रव्य कहते हैं अथवा गुण और पर्याय जिसके या जिसमें हो, उसको गुण पर्यायवत् द्रव्य समझना चाहिए। लेकिन इसमें यह जानना आवश्यक होता कि द्रव्य में 142 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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