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________________ लोकवाद भारतीय दर्शन की चिन्तन धाराओं में अनेक भारतीय दार्शनिक हुए, जिन्होंने दार्शनिक तत्त्वों पर अपना बुद्धि विश्लेषण विश्व के समक्ष दिया। दर्शन तत्त्वों में लोक का भी अपना अनूठा स्थान है, जिसे भारतीय दार्शनिक तो मनते ही हैं, साथ में पाश्चात्य विद्वानों ने और दार्शनिकों ने भी स्वीकृत किया है तथा जैन आगमों में लोक की विशालता का गम्भीर चिन्तन पूर्वक विवेचन मिलता है। ___ लोक विषयक मान्यता विभिन्न दर्शनकारों की भिन्न-भिन्न है। इन सभी मान्यताओं को आगे प्रस्तुत किया जायेगा। यहाँ सर्वप्रथम आगमों तथा ग्रंथों में लोक का प्रमाण स्वरूप भेद आदि जानना आवश्यक होगा। लोक विश्व क्या है? मनुष्य का मस्तिष्क जिज्ञासाओं का महासागर है। उसमें प्रश्नों की तरंगें और कल्लोलें उठती रहती . हैं। मनुष्य के पास ज्ञान का माध्यम है-इन्द्रियां और मन। बाह्य जगत् से वह इनके माध्यम से सम्पर्क करता है। ज्योंहि प्रकृति की प्रक्रियाएँ उसके समक्ष आती हैं, त्योंहि उसके मन में क्या? कैसे? क्यों? आदि प्रश्न खड़े हो जाते हैं। यह विश्व क्या है? किससे बना है? कब अस्तित्व में आया? कब तक रहेगा? किसने बनाया? क्यों बनाया? कितना बड़ा है? इसका आकार क्या है? आदि-आदि प्रश्न विश्व के स्वरूप के बारे में सहज ही सामने आते हैं। हर व्यक्ति इस विश्व की प्रहेलिका को बुझाना चाहता है। विभिन्न दर्शनवेत्ताओं एवं वैज्ञानिकों ने भी अपने-अपने ढंग से इस पहेली को हल करने का प्रयास किया है। लोक शब्द जैनदर्शन का पारिभाषिक शब्द है जो व्यवहार में प्रचलित विश्व या Universe का वाच्य है। लोक की परिभाषा जे लोककई से लोए-यानी जो दिखाई दे रहा है, वह लोक है। यह लोक की व्युत्पत्तिजन्य परिभाषा है। दिगम्बर साहित्य में भी इस व्युत्पत्ति की पुष्टि होती है धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोकयन्ते स लोक इति। जहाँ धर्म-अधर्म आदि द्रव्य देखे जाते हैं, उसे लोक कहते हैं। इसी प्रकार धवलाकार आचार्य वीरसेन ने भी लिखा है को लोकः लोकयन्ते उपलभ्यन्ते यस्मिन, जीवादय पदार्थाः स लोकः। जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं, उसे लोक कहते हैं। , लोक की क्रियात्मक परिभाषा (Functional Definition) हमें इस प्रकार मिलती हैषड्द्रव्यात्मको लोकः, जो षड्द्रव्यात्मक है, वह लोक है। भगवती सूत्र में भी बताया गया है कि लोक षड्द्रव्यात्मक है। उत्तराध्ययन सूत्र में बताया गया है कि धम्मो अधम्मो आगासं, कालो पुग्गल जन्तवो। ऐस लोगोन्ति पन्नतो, जिणेंहि वरदंसिहिं।।" 131 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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