________________ इस प्रकार सत् को जैन दार्शनिकों ने सर्वोपरि सिद्ध करके अपने सदागमों में स्थान दिया है। हमारा मानस हमेशा सत् प्रवाद का विचार करे। यही विषय पूर्वो में भी परिगणित हुआ है जो चौदह पूर्व हमारी श्रमण संस्कृति का आधार है, जिनको दृष्टिवाद रूप से सम्मानित रखा गया है। जिस प्रकार आत्मद्रव्य और पुद्गलद्रव्य की तीन-तीन अवस्थाएँ हैं-उत्पन्न होना, नाश होना और द्रव्य रूप में स्थिर रहना। इसको जैन परिभाषा में त्रिपदी कहते हैं। उप्पनेइवा, विगमेइवा, धुवेइवा और वह त्रिकोण के तीन तरफ से दिखाई जाती है। विश्व के किसी भी पदार्थ की वे तीन अवस्थाएँ पाई जाती हैं। वैदिक परम्परा में भी विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और लय-ये तीनों मानते हैं। उत्पत्ति में देवरूप में ब्रह्मा, स्थिति में देवरूप से विष्णु और संहार रूप में देवरूप से शंकर को मानते हैं। जैन परम्परा में सम्पूर्ण विश्व की उत्पत्ति स्वीकृत्य नहीं, लेकिन विभिन्न पदार्थों के विभिन्न पदार्थ रूप में उत्पत्ति स्वीकारते, लेकिन सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड तो अनादि-अनन्त है।" प्रज्ञावबोध मोक्षमाला हेमचन्द्राचार्य रचित में भी त्रिपदी के विषय में ब्रह्मा, विष्णु और महेश को त्रिमूर्ति कहकर समझाया गया है। इस प्रकार सत् को अपेक्षा विशेष लेकर सभी दार्शनिकों ने स्वीकारा है, क्योंकि सत् के बिना जगत् का अस्तित्व ही समाप्त हो जाता है। महोपाध्याय यशोविजय ने उत्पादादि सिद्धि की टीका में तथा आचार्य हरिभद्रसूरि ने तत्त्वार्थ टीका में यहाँ तक कह दिया है कि यह प्रवचन गर्भसूत्र है, तथा एक-दो तीर्थंकरों ने ही सत् के विषय में उपेदश नहीं दिया बल्कि अनन्त तीर्थंकरों ने सत् का लक्षण स्वीकारा है और प्रतिपादित किया है। अतः प्रवाह की अपेक्षा से यह सत् अनादि-अनन्त है। परन्तु व्यक्ति विशेष की अपेक्षा से अनित्य है, क्योंकि सत् स्वयं में सर्वथा शक्तिमान होता हुआ भी सापेक्षित दृष्टि . . से अनित्यता में भी आ जाता है, क्योंकि सापेक्षवाद ही सत्य का साक्षात् करवाता है। यदि सापेक्षवाद : से किसी भी विषय को विचारित करते हैं तो एकान्त दुराग्रह दूर हो जाता है और सर्वत्र समरसता से रहने का सुप्रयास सौष्ठवभरा हो जाता है। निर्विरोध जीवन की कड़ी में निर्वर जीवन में सत् का सामंजस्य सापेक्षवाद से ही स्वीकार करने वाले सर्वत्र यशस्वी रहे हैं। अनेकान्तदर्शन ने आग्रही होने का अनुरोध नहीं किया है। अपितु एक ऐसा विवेक दिया है, जिससे मनुष्य अपने मन्तव्यों को मानरहित, अन्यों के अपमानरहित जीवन जीने का एक राजमार्ग दर्शित करता है और वह सत् ही समूचे दार्शनिक सत्य का साक्षात्कार करवाता है, जिसको शास्त्रकारों ने वर्णित कर विशेष स्थान दिया है। उसी सत् को प्रत्येक दार्शनिक ने शिरोधार्य कर सत् चित् आनन्द रूप से जाना है। जैन दर्शन ने इसी सत् को अनाग्रह भाव से अंगीकार कर वास्तविकता से विधिवत् मान्य किया है। यह सत् शब्द किसी सम्प्रदाय विशेष का न बनकर सर्वत्र अपनी स्थिति को समुचित रूप से स्थिर रखता है। चाहे उपनिषद् साहित्य हो अथवा त्रिपिटक निकाय हो, आगमिक आगार हो। ऐसे सत् को उपाध्याय यशोविजय ने अपने दार्शनिक दृष्टिकोण का सहयोगी बनाया है, जिससे सम्पूर्ण जीवन उपाध्याय यशोविजय का सत्मय बनकर समाज में प्रशंसित बना पुरोगामी रहा है और पुरातत्त्व का पुरोधा कहा गया है। ऐसे सत् को सर्वज्ञों ने, श्रुतधरों ने और शास्त्रविदों ने ससम्मान दृष्टि से प्रशस्त स्वीकार किया है। 130 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org