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________________ वरद्रष्टा जिनों के द्वारा धर्म, अधर्म, आकाश, काल, पुद्गल और जीव यह लोक बताया गया है। इसी तथ्य को गोम्मटसार जीवकाण्ड, गाथा 561, 564 में भी बताया गया है। षड्द्रव्यात्मक लोक की तरह पंचास्तिकाय रूप लोक का प्रतिपादन भी उपलब्ध है किमियं भंते! लोएति पन्बुच्चइ ?' समर्थ तार्किकवादी आचार्य हरिभद्रसूरि दशवैकालिक की टीका में लोक के प्रमाण को प्रदर्शित करते हुए कहते हैं लोकस्य चतुर्दश रज्वात्मकस्य। पाँचवें कर्मग्रंथ में भी कहा गया है चउदसरज्जू लोओ, बुद्धिकओ सत्तरज्जूमाणघणो।" अर्थात् लोक प्रमाण 14 राजलोक है। यही बात भगवती, आवश्यक अवचूर्णि,6 अनुयोगवृत्ति, बृहत्संग्रहणी,18 लोकप्रकाश,49 शान्तसुधारस, आवश्यक नियुक्ति में है। लोक का स्वरूप-चौदह राजलोक का स्वरूप इस प्रकार स्थानांग समवायांग में मिलता हैअधोलोक की सातों नरक एक-एक रज्जू प्रमाण है। प्रथम नरक के ऊपर के अन्तिम अंश से सौधर्मयुगल तक एक रज्जू होता है। उसके ऊपर ब्रह्म और लातंक-ये दोनों मिलकर एक रज्जू, उसके ऊपर महाशुक्र और सहस्त्रार-इन दोनों का एक रज्जू। उसके ऊपर आनत, प्राणत, आरण और अच्युत मिलकर चौदह रज्जू प्रमाण होता है तथा बृहत्संग्रहणी में लोक के स्वरूप की गाथा इस प्रकार है अहभाग सगपुढवीसु रज्जु इकिकक तह य सोहम्मे। माहिंद लंत सहस्त्रारऽच्चुय गेविज्ज लोगते।। अथं च आवश्यक नियुक्ति चूर्णि संग्रहयार्धाभिप्रायः। परन्तु योगशास्त्रवृत्ति के अभिप्राय से तो समभूतल रूचक से सौधर्मान्त तक डेढ रज्जू, माहेन्द्र तक ढाई, ब्रह्मान्त तक तीन, सहस्त्रार तक चार, अच्युत के अन्त में पाँच, ग्रैवेयक के अन्त में छः और लोक के अन्त में सात रज्जू होता है। भगवती आदि में तो धर्म रत्नप्रभा पृथ्वी के नीचे असंख्य योजन के बाद लोक मध्य है, ऐसा कहा गया है। उनके आधार से तो वहाँ सात राज पूर्ण होता है। अतः वहाँ से ऊर्ध्वलोक की गणना प्रारम्भ होती है। तीनों लोक में मध्यम लोक का परामर्श बना रहता है। जीवाभिगम सूत्र में सौधर्म, ईशान आदि सूत्र व्याख्यान में बहुसमभूभाग से ऊपर चन्द्र, सूर्य, ग्रह, नक्षत्र और ताराओं को छोड़कर क्रोड असंख्यात योजन के बाद डेढ रज्जु होता है, ऐसा कहा लोकनालिस्तव में भी सौधर्म देवलोक तक डेढ़, माहेन्द्र तक ढाई, सहस्त्रार तक चार, अच्युत तक पाँच और लोकान्त में सात रज्जू होते हैं। तत्पश्चात् अलोक प्रारम्भ होता है। अनुयोगवृत्ति, अनुयोग मलधारीयवृत्ति, लोकप्रकाश तथा शान्त सुधारस में भी इसका स्वरूप मिलता है। 132 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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