SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 193
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ यदि अन्य अर्थक्रिया से मानी जाए तो अनवस्था यदि अर्थक्रिया स्वतः सत् हो तो पदार्थ भी स्वतः सत् हो जाए। बौद्ध वस्तु को क्षणमात्रस्थायी मानते हैं फिर भी उसमें सहसा उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य का अभ्युपगम हो जाता है, क्योंकि उपरोक्त तीनों में से एक का भी अभाव होने पर क्षणस्थायित्व की उत्पत्ति नहीं हो सकती है। जैसे कि घट को क्षणमात्रस्थायी कहा तो वह तत्क्षण अस्तित्व प्राप्त करने से उत्पाद, उत्तरक्षण में नष्ट होने से व्यय तथा तत्क्षण क्षणमात्रस्थायी कहा तो वह तत्क्षण अस्तित्व प्राप्त करने से उत्पाद उत्तरक्षण में नष्ट होने से व्यय तथा तत्क्षण अवस्थित होने से ध्रुवरूप सिद्ध होता है। अतः तदनुसार वस्तु को अनिच्छा से भी त्रयात्मक मानना अनिवार्य है। महान् श्रुतधर, न्यायवेता लघु हरिभद्र महोपाध्याय यशोविजय अपनी मति वैभवता को विकस्वर करते हुए उत्पादादि सिद्धि नामधेयं ग्रंथ की टीका में यह स्पष्ट कथन किया कि सत् वस्तु को सभी वादि अनींदनीय रूप से मानते हैं। यत्सत् वस्तु इति सवैरपि वादिभिर बिगानेन प्रतीतिमिति। लेकिन सत् विषयक लक्षण सभी का भिन्न-भिन्न है। जैसे कि-अर्थ क्रियाकारित्वं सत्वम इति सौंगताः। सताख्यापरं सामान्यं सत्वम् इति नेयायिकाः पुरुषस्य चैतन्य रूपत्वं तदन्येषां त्रिगुणात्मकत्वं सत्वम् इति कपिलाः। सत्वं त्रिविधिं पारमार्थिक व्यवहारिक प्रतिभासिकं च इति वेदान्ति। न्याय, वैशेषिक, वेदान्त, बौद्ध, मीमांसक के द्वारा किये हुए सत्व के लक्षण का उपाध्यायजी ने अपनी तर्क युक्त सुक्तियों से स्वोपज्ञ टीका में खण्डन किया है तथा त्रिकालाबाधित तथा अनन्त तीर्थंकर . प्रतिपादित तीर्थंकरोपदिष्टं के प्रस्ताव से मीमांसक मान्य वेद के अपौरुषेयत्ववाद का खण्डन करते हुए प्रसंगानुप्रसंग अनेक प्रौढ़ युक्तियों से पौरुषेयत्ववाद का समर्थन तथा सर्वज्ञगदितागम ही प्रमाण्य सिद्ध है। उन केवलज्ञानियों से उपदिष्ट उत्पादादित्रययोगित्वं सत्वम् लक्षण त्रिकाल अबाधित है। सत् विषयक चिन्तन-मनन वैदिक साहित्य में समुपलब्ध होता है। ऋग्वेद का ऐसा सुक्त है जो अपने सामने ही चर्चित है। वहाँ पर इस प्रकार का एक वाक्य मिलता है ना सदासीन्नो सदासीतदानी। एक समय ऐसा था, जहाँ सत् को भी स्पष्ट नहीं किया और असत् को भी अभिव्यक्त नहीं किया। इतना अवश्य है कि सत् सत्ता का विवरण वैदिक साहित्य ने भी स्वीकृत किया है। अतः सत् को स्पष्टतया आर्षकालीन वाङ्मय अभिव्यक्त करता है। उत्तरकालीन उपनिषद् साहित्य में श्री ब्रह्म सत्ता को लेकर कठोपनिषद् में ऐसा उल्लेख मिलता है अणोरणीयान् महतो महीयान। वह सत् स्वरूप अत्यन्त अल्प परमाणु से भी अल्पतर है और महान से भी महान है। ऐसी वैदिक चर्चाएँ सत् के विषय में चर्चित मिलती हैं। अतः सत् को सिद्धान्त देने में सभी महर्षि मनीषि एकमत हैं और उस सत् की समय-समय पर युगानुरूप परिभाषाएँ होती रही हैं। इन परिभाषाओं के परिवेश में यह सत्प्रवाद श्रद्धा का विषय बन गया। समादरणीय रूप से सदाचार में ढल गया है और समाज के अंगों में साहित्य के अवयवों में चित्रित हुआ। तथागत बुद्ध के विचारों ने भी सत् को एक अन्यदृष्टि से स्वीकृत कर अपने जीवन में स्थान दिया। हमारी सम्पूर्ण भारतीय संस्कृति ने सत् का समर्थन किया और श्रद्धेय रूप देकर सदाचार का सुअंग बनाया। 127 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy