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________________ __ प्रत्यक्ष लिंग से सिद्ध ऐसी अनेकात्मक अर्थात् अनेक धर्मों से युक्त पदार्थ सत् है। यह उनकी अपनी विशिष्ट व्याख्या है। सत् को अवधारित करने पर आचार्य सिद्धसेन का महामूल्यवान दृष्टिकोण सिद्ध हुआ है। उन्होंने अपने सन्मति तर्क जैसे ग्रंथ में सत् की चर्चाएँ उल्लेखित कर सम्पूर्ण तत्कालीन दार्शनिकों के मन्तव्यों को उद्बोधन दिया है और समयोचित शास्त्रसंगत मान्यताओं को महत्त्वपूर्ण स्थान देते हुए सत् के स्वरूप को स्पष्ट किया है। सन्मति तर्क के टीकाकार आचार्य अभयदेव सूरि लिखते हैंन चानुगत व्यावृत वस्तुव्यतिरेकेण द्वयाकारा बुद्धिर्घटते नहि विषय व्यतिरेकेण प्रतीतिरूतयधते। सत् को बुद्धिग्राह्य और प्रतीतिग्राह्य बनाने के लिए ऐसी कोई असामान्य विचारों की विश्वासस्थली रचना होगी, जिससे वह सत् सार्वभौम रूप से सुप्रतिष्ठित बन जाये। आचार्य सिद्धसेन एवं आचार्य अभयदेव इन दोनों महापुरुषों ने सत् को समग्ररूप से बुद्धि के विषय में ढालने का प्रयास किया। वह बौद्धिक प्रयास बढ़ता हुआ बहुमुखी बनकर बहुश्रुत रूप से एक महान् ज्ञान का अंग बन गया। ऐसे ज्ञान के अंग को सत् रूप से रूपान्तरित करने का बहुत्तर प्रयास जैन दार्शनिकों का रहा है। अन्यान्य दार्शनिकों ने उस सत् स्वरूप को सर्वांगीणतया आत्मसात् नहीं किया परन्तु जैन दार्शनिक धारा ने उसको वाङ्मयी वसुमति पर कल्पतरू रूप से कल्पित कर कीर्तिमान बनाया है। वही सत् प्रज्ञान का केन्द्र बना, जिसको हमारे हितैषी उपाध्याय यशोविजय ने उसको अपना आत्म-विषय चुना और ग्रन्थों में आलेखित किया। महोपाध्याय यशोविजय ने अपने नयरहस्य ग्रंथ में अन्यदर्शनकृत सत् का लक्षण इस प्रकार संदर्शित किया है सदाविशिष्ट मेव सर्व ___बह्याद्वैतवादी श्री हर्ष ब्रह्म को सत् स्वरूप मानते हैं, क्योंकि इनके मतानुसार ब्रह्म को छोड़कर * * अन्य किसी को नित्य नहीं स्वीकारा गया है। समवाय एवं जाति नाम का पदार्थ भी इनको मान्य नहीं। अतः 'अर्थ क्रियाकारित्वं सत्वम्' यह बौद्ध सम्मत लक्षण भी अमान्य है, क्योंकि इनके मत में ब्रह्म निर्गुण निष्क्रिय निर्विशेष हैं। शुद्ध ब्रह्म पलाश के समान निर्लेप हैं। अतः उनमें अर्थ क्रिया संभावित नहीं हो सकती। अतः बौद्धमान्य सत् का लक्षण एवं जैन दर्शन मान्य सत् का लक्षण इनको सम्मत नहीं है। ये लोग तो त्रिकालाबाध्यत्व रूप सत्व जिस वस्तु का तीनों कालों में से किसी भी काल में हो, किसी भी प्रमाण से बाधित नहीं होता है, वही वस्तु सत् है और ऐसी वस्तु केवल ब्रह्म ही है। ब्रह्म साक्षात् हो जाने पर भी घट पटादि प्रपंच का बाध हो जाता है। अतः घट पदादि प्रत्यक्ष अनुभव होने पर भी ये सत् नहीं हैं, ऐसी इनकी मान्यता है। दूसरी युक्ति यह भी है कि जो पदार्थ सर्वत्र अनुवर्तमान होता है, वह सत् है। जो व्यावर्तमान होता है, वह प्रतीयमान होने पर भी सत् नहीं है। नैयायिकों का सत्लक्षण किमिंद कार्यत्वं नाम। स्वकारणसता सम्बन्धः तेन सता कार्यमिति व्यवहारात्।। सत्ता का सम्बन्ध रूप सत्व का लक्षण तथा प्रश्न वार्तिक में निर्दिष्ट अर्थक्रिया समर्थं यत् तदर्थ परमार्थसत्” यह बौद्ध सम्मत सत् का लक्षण है। इन दोनों में दुषण प्राप्त होता है। वह इस प्रकार-इन लक्षणों में सत्ता सम्बन्ध सत् पदार्थों में माना जाए या असत् पदार्थों में इत्यादि तथा अर्थक्रिया में सत्ता 126 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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