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________________ पौराणिक पुरोधा महर्षि व्यास ने अपनी पुरातनी पुराण प्रणाली में सत् का ऐसा उल्लेख किया नित्यं विनाशरहितं नश्वरं प्राकृतं सदा।" जो विनाशरहित है, वही नित्य है। जो नित्य बना, वो ही सत् स्वरूप है और जो अनित्य है, वह नाशवान है। इस प्रकार सत् एक अविनाशी अव्यय तत्त्व है। उपरोक्त सत् विषयक चिन्तन की धारा में सांख्य, नैयायिक और वैशेषिक दर्शनकार सत्कार्यवादी हैं, उनकी मान्यता यह है कि पूर्ववर्ती कारण द्रव्य है। उसमें कार्य सत्तागत रूप से अवस्थित रहता है। जैसे कि मृत्पिंड में कार्य सत् है, क्योंकि जो मृत्पिंड है, वही घट रूप में परिणत होता है। ‘स एव अन्यथा भवति' यह सिद्धान्त सत्कार्यवादि सांख्यादिकों का है। इसी प्रकार ‘स एव न भवति' यह सिद्धान्त क्षणिकवादी बौद्धों का है। ये वस्तु को क्षणमात्र ही स्थित मानते हैं। दूसरे क्षण में सर्वथा असत् ऐसी अपूर्व वस्तु उत्पन्न होती है। अतः ये असत्कार्यवादी हैं। परन्तु 'उत्पादव्ययध्रौव्ययुक्तं सत्' यह द्रव्य व्यवस्था का एक सर्वमान्य सिद्धान्त है, क्योंकि उपनिषद्, वेदान्त, सांख्य, योग आदि दर्शनों द्वारा स्वीकृत आत्मा को एकान्त रूप से कूटस्थ नित्य माना जाए तो उसका जो स्वभाव है, उसमें ही वह अवस्थित रहेगा, जिससे उसमें कृत विनाश, कृतागम आदि दोष उपस्थित होंगे, क्योंकि कूटस्थ नित्य आत्मा तो अकर्ता है, अबद्ध है, किन्तु व्यवहार में व्यक्ति शुभाशुभ क्रियाएँ करता हुआ दृष्टिगोचर होता है और प्रायः सभी धर्मों में बन्धन से मुक्त होने के लिए व्रत, नियम, तप, जप आदि निर्दिष्ट साधनाएँ निष्फल जायेंगी तथा निम्नोक्त आगम वचन के साथ भी विरोध आयेगा अहिंसा सत्यास्तेयब्रह्मचर्यापरिग्रह यमाः।28 शौच संतोष तपः स्वाध्यायेश्वर प्रणिधानानि नियमाः। __अब आत्मा को कूटस्थ नित्य मानने पर आगम के वचन, वचनमात्र रह जायेंगे। आत्मा के अकर्ता होने के कारण मुक्ति प्राप्ति के लिए की गई समस्त साधना निष्फल होगी तथा संसार और मुक्ति में कुछ भी भेद नहीं होगा, क्योंकि कूटस्थ आत्मवाद के अनुसार आत्मा परिवर्तन से परे है। अतः सिद्ध होता है कि एकान्त ध्रौव्य नहीं है, उत्पाद और व्ययात्मक भी है। अतएव देव, मनुष्य, सिद्ध, संसारी अवस्थाएँ कल्पनातीत नहीं हैं, परन्तु प्रमाण सिद्ध हैं। - इसी प्रकार अनित्यवाद के समर्थक चार्वाक और बौद्धदर्शन के अनुसार आत्मा में नित्य का अभाव था। क्षणभंगुर माना जाए तो सत् के अभाव का प्रसंग आ जाता है, क्योंकि आत्मा को अनित्य या क्षणिक माना जाए तो बन्धन मोक्ष की व्यवस्था घटित नहीं होती है। अनित्य आत्मवाद के अनुसार प्रतिक्षण परिवर्तन होता है तो फिर बन्धन और मोक्ष किसका होगा? बन्धन और मोक्ष के बीच स्थायी सत्ता के अभाव में बन्धन और मोक्ष की कल्पना करना ही व्यर्थ है। जहाँ एक ओर बौद्ध स्थायी सत्ता को अस्वीकार करता है, वहीं दूसरी ओर बन्ध मोक्ष पुनर्जन्म आदि अवधारणाओं को स्वीकार करते हैं। किन्तु यह तो वदतो व्याधात जैसी परस्पर विरुद्ध बात है। ___ अनित्य आत्मवाद का खण्डन कुमारिल शंकराचार्य, जयन्तभट्ट तथा मल्लिसेन आदि ने भी किया है। इसके अतिरिक्त आप्तमीमांसा और युक्त्यानुशासन में भी अनित्यवाद पर आक्षेप किये गये हैं। 128 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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