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________________ ये जीव के असाधारण भाव हैं, जो किसी भी भव्य द्रव्य में नहीं मिलते हैं। अनुयोगद्वार सूत्र में कहा गया है कि "जीवास्तिकाय का भव्यत्व और अभव्यत्व अनादि पारिणामिक भाव हैं।" 89 समान लक्षणों वाली वस्तुओं में भी उत्तरभेद हो सकते हैं। जिस द्रव्य में चेतनागुण है, उसे जीव कहते हैं और जिन द्रव्यों में चेतना गुण नहीं है, उन्हें अजीव कहते हैं। उसी प्रकार जिन जीवों में मोक्ष जाने की योग्यता है, उन जीवों को भव्य कहते हैं और जिनमें मोक्ष प्राप्ति की योग्यता नहीं है, उन्हें अभव्य कहते हैं। भव्यत्व भी दो प्रकार का होता है-1. भव्य, 2. जातिभव्य। जातिभव्य जीव वे होते हैं, जिनमें मोक्षप्राप्ति की योग्यता होने पर भी इनको अनुकूल सामग्री का योग कभी भी नहीं मिलता है, इसलिए जातिभव्य जीव भी कभी मोक्षप्राप्ति नहीं कर सकते हैं। प्रश्न यह उठता है कि दुर्भव्य या जातिभव्य में भव्यत्व रहने पर भी मोक्ष प्राप्त क्यों नहीं कर सकते हैं? इस प्रश्न का उत्तर उपाध्याय यशोविजय ने एक द्रष्टान्त द्वारा समझाया कि स्वयंभूरयण समुद्र के मध्यतल में कोई पत्थर रहा हुआ है और उस पत्थर में प्रतिमा बनने की संभावना नहीं है, तो प्रतिमा बनने की बात ही कहाँ रही? उसी प्रकार जातिभव्य जीवों की संज्ञी पंचेन्द्रिय बनने की शक्यता भी नहीं होती तो फिर मनुष्यभव प्राप्त कर रत्नत्रय की आराधना करके मोक्ष प्राप्त करने की बात कैसे सम्भव हो? स्थानांग सूत्र में भी कहा गया है कि "सूक्ष्म एकेन्द्रि या अनन्तकाय सिवाय के जितने भव्य हैं, उनमें कोई भी जातिभव्य नहीं कहलाता है, क्योंकि जातिभव्य को प्रसादिक प्राप्त करने की सामग्री का योग ही नहीं मिलता है।" सारांश यह है कि नियम ऐसा बनाया जा सकता है कि तद्दयोग्य सामग्री प्राप्त होने पर जो द्रव्य प्रतिमा योग्य है, उन्हीं से प्रतिमा बनती है, अन्य से नहीं और जो जीव भव्य है, वे ... ही सिद्धिगमन योग्य सामग्री प्राप्त होने पर मोक्ष जाते हैं, अन्य नहीं जाते हैं, किन्तु ऐसा नियम नहीं , बनाया जा सकता है कि जो द्रव्य प्रतिमा के योग्य है, उन सभी की प्रतिमा बनती ही है और जो जीव भव्य है, वे मोक्ष जाते ही हैं।" ___इसे और अधिक स्पष्ट करने के लिए विशेषावश्यक भाष्य में द्रष्टान्त देते हुए कहा गया है कि "स्वर्ण और स्वर्णपाषाण के संयोग में वियोग की योग्यता होने से स्वर्ण को स्वर्णपाषाण से अलग किया जा सकता है परन्तु सभी स्वर्णपाषाण से स्वर्ण अलग नहीं होता है। जिन्हें वियोग की सामग्री मिलती है, उन्हीं से स्वर्ण अलग होता है। इसी प्रकार चाहे सभी भव्य जीव मोक्ष में न जाएँ लेकिन मोक्ष जाने की योग्यता भव्य में ही मानी जाती है। अभव्य में मोक्षगमन की योग्यता का अभाव होता है। लेश्या के आधार पर आत्मा का परिणाम आध्यात्मिक जगत् में लेश्या का महत्त्वपूर्ण स्थान है। जीव के शुभ तथा अशुभ परिणामों को लेश्या कहते हैं। भगवती सूत्र की वृत्ति में लेश्या को परिभाषित करते हुए आचार्य अभयदेवसूरि लिखते हैं आत्मा के साथ कर्म पुद्गलों को श्लिष्ट करने वाली प्रवृत्ति लेश्या है। ये योग के परिणामविशेष हैं। आत्मा के द्वारा पुद्गलों का ग्रहण होता है। वे पुद्गल उसके चिंतन को प्रभावित करते हैं। अच्छे पुद्गल अच्छे विचारों के सहायक बनते हैं और बुरे पुद्गल बुरे विचारों के। यह एक सामान्य नियम है। विचारों की शुद्धि एवं अशुद्धि में अनन्तगुण तरतमभाव रहता है। तत्त्वार्थ राजवार्तिक में लेश्या को परिभाषित करते हुए आचार्य अकलंक लिखते हैं-कषाय के उदय से रंजित योग की प्रवृत्ति लेश्या है। आत्मा की परिणामों की शुद्धता और अशुद्धता की अपेक्षा इसे कृष्णादि छः भागों में विभक्त किया गया है। प्रथम तीन लेश्या अशुभ हैं और अन्तिम तीन लेश्या शुभ है। 99 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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