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________________ . कृष्ण लेश्या : भारतीय संस्कृति में यम (मृत्यु) को काले रंग से चित्रित किया गया है। काजल के समान काले और जीभ से अनन्त गुण कटु रस वाले पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होते हैं, वह कृष्ण लेश्या है। उपाध्याय यशोविजय कहते हैं कि निर्दयता पश्चात्तापरहितता दूसरों के दुःख में हर्ष, सतत् हिंसादि विचारों में प्रवृत्ति आदि इसके लिंग हैं। कृष्ण लेश्या वाला क्रूर, अविचारी, निर्लज्ज, नृशंस, विषय-लोलुप, हिंसक स्वभाव की प्रचण्डता वाला होता है। नील लेश्या : नीलम के समान नीला और सोंठ से अनन्तगुण तीक्ष्ण पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा में जो परिणाम होते हैं, वह नीललेश्या कहलाती है। जो ईर्ष्याल, कदाग्रही, प्रमादी, रसलोलुपी और निर्लज्ज होता है, वह नीललेश्या परिणामी है।" कापोत लेश्या : कबूतर के गले के समान वर्ण वाली और कच्चे आम के रस से अनन्तगुण कसैले पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा के जो परिणाम होते हैं, वह कापोतलेश्या होती है। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार अत्यधिक हंसने वाला, दृष्ट वचन वाला, आत्मप्रशंसा और पर-निंदा में तत्पर कापोतलेश्या से युक्त होता है। तेजो-लेश्या, पीत-लेश्या-हिंगुल के लाल पके हुए आम्ररस से अनन्तगुना मधुर पुद्गलों के संयोग से आत्मा में जो परिणाम होते हैं, वे तेजोलेश्या कहलाती हैं। गौम्मटसार में इसके लिए पीतलेश्या शब्द .. प्रयुक्त हुआ है। महत्त्वाकांक्षारहित, प्राप्त परिस्थिति में प्रसन्न रहने की स्थिति को पीतलेश्या या तेजोलेश्या कहा गया है। पद्मलेश्या : हल्दी के समान पीले तथा शहद से अनन्तगुना मधुर पुद्गलों के संयोग से आत्मा के जो परिणाम होते हैं, वह पद्मलेश्या कहलाती है। * शुक्ल लेश्या : शंख के समान श्वेत और मिश्री से अनन्तगुना मधुर पुद्गलों के सम्बन्ध से आत्मा के जो परिणाम होते हैं, वह शुक्ल लेश्या युक्त होते हैं। उपाध्याय यशोविजय के अनुसार शुक्लध्यान के प्रथम दो पाए में शुक्ल लेश्या तथा तीसरे पाए में शुक्ल लेश्या परम उत्कृष्ट रूप में होती है। शुक्ल ध्यान का चौथा प्रकार लेश्यातीत होता है। शुक्ललेश्या वाला निंदा-स्तुति, मान-अपमान, पूजा-गाली, शत्रु-मित्र सभी स्थितियों में समत्वभाव में रहता है। . भावों के आधार से एक जीव लेश्या के अनेक स्थानों को स्पर्श कर सकता है। मिथ्यादृष्टि जीव छहों लेश्याओं में रह सकता है। सयोगीकेवली के मात्र शुक्ललेश्या होती है। अयोगी अवस्था में जीव लेश्यारहित होता है। यही अध्यात्म की पूर्णता है। आत्मा का त्रिविध वर्गीकरण जैन धर्म-दर्शन में आध्यात्मिक पूर्णता अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति की साधना को अन्तिम लक्ष्य माना जाता है। इसी लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधक को साधना की विभिन्न श्रेणियों से गुजरना पड़ता है। डॉ. सागरमलजी जैन का कहना है, "विकास तो एक मध्यावस्था है। उसके एक ओर अविकास की अवस्था तथा दूसरी ओर पूर्णता की अवस्था है।"100 इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए पूर्ववर्ती जैनाचार्यों ने तथा उपाध्याय यशोविजय ने अपने ग्रंथ में आत्मा की निम्न तीन अवस्थाओं का विवेचन किया है बहिरात्मा-आत्मा के अविकास की अवस्था अन्तरात्मा-आत्मा की विकासमान अवस्था 100 For Personal Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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