________________ •आत्मा मूर्त या अमूर्त, देह से भिन्न या अभिन्न उपाध्याय यशोविजय कहते हैं-व्यवहारनय को मानने वाले आत्मा में कथंचित् मूर्तता मानते हैं, कारण कि उसमें वेदना का उद्भव होता है।" देह और आत्मा एक ही क्षेत्र में रहे हुए हैं। किसी मनुष्य पर लकड़ी से प्रहार करें तो वह वेदना शरीर में होती है। आत्मा तो मात्र द्रष्टा होती है। मूर्त द्रव्यकृत परिणाम मूर्त द्रव्य में ही होता है, अमूर्त में नहीं। देहधारी जीव पर प्रहार करने से उसे जो वेदना होती है, वह शरीर के प्रति होती है इसलिए जैन दर्शन संसारी आत्मा में कथंचित् मूर्तता स्वीकारता है। ममत्व के कारण इस प्रकार व्यवहारनय अमुक अंश में देह के साथ आत्मा की अभिन्नता मानता है। भगवान महावीर के समक्ष जब यह प्रश्न उपस्थित किया गया कि भगवन् जीव वही है, जो शरीर है या जीव भिन्न है और शरीर भिन्न है? भगवान महावीर ने उत्तर दिया-"गौतम! जीव शरीर भी है और शरीर से भिन्न भी है।" इस प्रकार भगवान महावीर ने आत्मा और देह के मध्य भिन्नत्व तथा एकत्व दोनों को स्वीकार किया है। आचार्य कुंदकुंद ने कहा कि "व्यावहारिक दृष्टि से आत्मा और देह एक ही है लेकिन निश्चयदृष्टि से आत्मा और देह कदापि एक नहीं हो सकते हैं।" उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार में निश्चयनय से कथन करते हुए कहा गया है-"जैसे ही उष्ण अग्नि के संयोग से उष्ण है, ऐसा भ्रम होता है, उसी प्रकार मूर्त अंग के सम्बन्ध से आत्मा मूर्त है, ऐसा भ्रम होता है।" अग्नि का गुणधर्म उष्णता है, घी का गुणधर्म उष्णता नहीं है, परन्तु घी को अग्नि पर तपाने से घी के शीतल परमाणुओं के बीच अग्नि के उष्ण परमाणु प्रवेश कर जाते हैं, इसलिए घी गरम है, ऐसा भ्रम होता है। गरम घी खाने पर भी शरीर में ठण्डक ही करता है, कारण शीतलता उसका स्वभाव है, उसी प्रकार आत्मा शरीर में रहने से मूर्त प्रतीत होती है, परन्तु स्वलक्षण से अमूर्त ही है। आत्मा का गुण, रूप, रस, गंध, स्पर्श, आकृति __शब्द नहीं है तो उसमें मूर्तत्व कहाँ से है। अतः आत्मा अमूर्त है। वस्तुतः आत्मा और शरीर में एकत्व माने बिना स्तुति, वंदन, सेवा आदि अनेक धार्मिक आचरण की क्रियाएँ संभव नहीं हैं। दूसरी ओर आत्मा और देह में भिन्नता माने बिना आसक्तिनाश तथा भेद-विज्ञान की संभावना नहीं हो सकती है। अतः आत्मा और शरीर कथंचित् भिन्न और कथंचित् अभिन्न हैं। आत्मा (जीवों) के प्रकार - संसार में जो जीव हैं, उनका विभिन्न शास्त्रों में अनेक प्रकार से वर्गीकरण किया गया है। मोक्षप्राप्ति की योग्यता की अपेक्षा से संसार में रहे हुए जीव दो प्रकार के हैं-भव्य तथा अभव्य। ___ कोई यह प्रश्न करे कि जीवों में जीवत्व एक समान रहा हुआ है, तो फिर जीवों के भव्यत्व और अभव्यत्व-इस प्रकार भेद करने की क्या आवश्यकता है? इस प्रश्न के उत्तर में उपाध्याय यशोविजय कहते हैं-"जैसे द्रव्यत्व समान होने पर भी जीवत्व और अजीवत्व का भेद है, उसी प्रकार जीव भाव समान होने पर भी भव्यत्व और अभव्यत्व का भेद है।"86 विशेषावश्यक भाष्य में भी कहा गया है कि जैसे जीव और आकाश में द्रव्यत्व समान होने पर भी उनमें चेतनत्व-अचेनत्व का भेद स्वाभाविक है वैसे ही जीवों में जीवत्व समान होने पर भी भव्याभव्यत्व का भेद है।" तत्त्वार्थसूत्र में भी “जीवत्व, भव्यत्व और अभव्यत्व-ये तीन पारिणामिक भाव बताए हैं।"88 98 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org