________________ पाखण्ड धर्म : सामान्य नैतिक नियमों का पालन करना ही पाखण्ड धर्म है। सम्प्रति पाखण्ड का अर्थ ढोंग हो गया है। वह अर्थ यहां अभिप्रेत नहीं है। पाखण्ड धर्म का तात्पर्य अनुशासित, नियमित एवं संयमित जीवन है। कुल धर्म : परिवार एवं वंश परम्परा के आचार, नियमों एवं मर्यादाओं का पालन करना कुलधर्म है। उसी प्रकार गणधर्म और संघधर्म भी नियमों के परिपालन के रूप में है। श्रुत धर्म : सामाजिक दृष्टि से श्रुतधर्म का तात्पर्य शिक्षण व्यवस्था संबंधी नियमों का पालन करना है। चरित्रधर्म : चरित्रधर्म का तात्पर्य है-श्रमण एवं गृहस्थ धर्म के आचार-नियमों का परिपालन करना। जैन आचार के नियमों एवं उपनियमों के पीछे सामाजिक दृष्टि भी है। अहिंसा संबंधी सभी नियम और उपनियम सामाजिक शांति के संस्थापन के लिए हैं। अनाग्रह सामाजिक जीवन से वैचारिक संघर्ष को समाप्त करता है। इसी प्रकार अपरिग्रह सामाजिक जीवन से संग्रहवृत्ति, अस्तेय और शोषण को समाप्त करता है। . इन धर्मों के प्रतिपादन का उद्देश्य व्यक्ति को अच्छा नागरिक बनाना है ताकि सामाजिक एवं पारिवारिक जीवन के संघर्षों और तनावों को कम किया जा सके तथा वैयक्तिक जीवन के साथ सामाजिक जीवन में भी शान्ति और समता की स्थापना की जा सके। धर्म : सदाचार के पालन के रूप में : जैनाचार्यों के अनुसार सद्गुणों का आचरण या सदाचार आध्यात्मिक साधना का प्रवेशद्वार है। उनकी मान्यता है कि जो व्यक्ति जीवन के सामान्य व्यवहारों में कुशल नहीं है, वह आध्यात्मिक जीवन की साधना में आगे नहीं बढ़ सकता है। आध्यात्मिक साधना से पूर्व इन योग्यताओं का सम्पादन आवश्यक है। आचार्य हेमचन्द्र ने इन्हें मार्गानुसारी गुण कहा है। उन्होंने योगशास्त्र के प्रथम प्रकाश में 35 मार्गानुसारी गुणों का विवेचन किया है, जैसे-न्याय सम्पन्न वैभव माता-पिता की सेवा, पापभीरुता, गुरुजनों का आदर, सत्संगति, अतिथि, साधु-दीनजनों को यथायोग्य दान देना आदि। आचार्य नेमिचन्द्र ने प्रवचनसारोद्धार में श्रावक के 21 गुणों का उल्लेख किया है। विशाल हृदयता, सौम्यता, स्वस्थता, लोकप्रियता, अक्रूरता, अशठता, गुणानुराग, दयालुता, दीर्घदृष्टि, कृतज्ञ, परोपकारी, वृद्धानुगामी आदि। समवायांग में एक अन्य दृष्टि से भी धर्म के रूपों की चर्चा मिलती है। इसमें क्षमा, निर्लोभता, सरलता, मृदुता, लाघव, सत्य, संयम, तप, त्याग, ब्रह्मचर्य-दस धर्मों की चर्चा की गई है। आचारांग तथा स्थानांग में भी इत्यादि सद्गुणों को धर्म कहा गया है। नवतत्त्व प्रकरण में भी धर्म के दस रूप प्रतिपादित किये गए हैं। वस्तुतः यह धर्म की सद्गुणपरक या नैतिक परिभाषा है। वे सभी सद्गुण जो सामाजिक समता को बनाए रखते हैं, सामाजिक समत्व के संस्थापक की दृष्टि से धर्म कहे गए हैं। वस्तुतः धर्म की इस व्याख्या को संक्षेप में हम यह कहकर प्रकट कर सकते हैं कि सद्गुण का आचरण ही धर्म है और दुर्गुण का आचरण ही अधर्म है। इस प्रकार जैन आचार्यों ने धर्म और नीति, या धर्म और सद्गुण में तादात्म्य स्थापित किया है। इसे उपाध्याय यशोविजय ने व्यवहारनय से आध्यात्मिक कहा है। वे कहते हैं कि 92 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org