________________ धर्म और अध्यात्म धर्म मानव की आध्यात्मिक विकास-यात्रा का सोपान है। धर्म और अध्यात्म के स्वरूप एवं पारस्परिक संबंध को जानने की जिज्ञासा प्रत्येक मानव में होती है। अन्ततः धर्म और अध्यात्म अलग-अलग नहीं हैं किन्तु, प्राथमिक स्थिति में दोनों में भिन्नता है। सामान्यतया आचार और व्यवहार के कुछ विधि-विधानों के परिपालन को धर्म कहा जाता है। नीतिरूप धर्म हमें यह बताता है कि क्या करने योग्य है तथा क्या करने योग्य नहीं है? किन्तु आचार के इन बाह्य नियमों के परिपालन मात्र को अध्यात्म नहीं कहते हैं। व्यक्ति जब क्रियाकलापों से ऊपर उठकर आत्मविशुद्धि रूप या स्वरूपानुभूति रूप धर्म के उत्कृष्ट स्वरूप को प्राप्त करता है तब धर्म और अध्यात्म एक हो जाते हैं। धर्म शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त होता है। जैसे किन्हीं विधि-विधानों के आचरण रूप कर्तव्य या सदाचार के पालनरूप तथा स्वरूप की अनुभूति रूप हम धर्म के विभिन्न रूपों का अध्यात्म से संबंध | बताते हुए धर्म का अन्तिम स्वरूप जहाँ धर्म और अध्यात्म एक हो जाते हैं, का निरूपण करेंगे। धर्म : कर्मकाण्ड के रूप में आज धर्म क्रियाकाण्ड के रूप में बहुत अधिक प्रचलित है। दान देना, पूजा करना, मन्दिर जाना, तीर्थयात्रा करना, साधर्मिक वात्सल्य करना, संघ की सेवा करना, भक्ति करना, प्रतिष्ठा महोत्सव करना, आदि को व्यवहार में धर्म कहते हैं और इन्हें करने वाला धार्मिक कहलाता है। किन्तु जब व्यक्ति ये क्रियाएँ इहलौकिक या पारलौकिक आकांक्षा से करता है तो वे वस्तुतः धर्म नहीं रह जाती हैं। उपाध्याय यशोविजय ने उसे भवाभिनंदी की संज्ञा देते हुए कहा है कि संसार में रुचि रखने वाला जीव आहार, उपाधि, पूजा, सत्कार, बहुमान, यश-कीर्ति, वैभव आदि को प्राप्त करने की इच्छा से तप, त्याग, पूजा आदि जो भी अनुष्ठान करे तो वह अध्यात्म की कोटि में नहीं है। वह तो संसार की वृद्धि करने वाला है। वस्तुतः मिथ्यादृष्टि व्यक्तियों की इन क्रियाओं की चाहे लौकिक दृष्टि से सांसारिक प्रयोजनों 'की सिद्धि में कोई उपयागिता हो, क्योंकि ऐसी दान-दया की प्रवृत्तियों के बिना संसार का व्यवहार नहीं चल सकता है परन्तु ये क्रियाएँ मोक्षमार्ग में आध्यात्मिक प्रगति साधने के लिए उपयोगी नहीं हैं। सामाजिक धर्म न जैन आचार-दर्शन में न केवल आध्यात्मिक दृष्टि से धर्म की विवेचना की गई है, वरन् धर्म के सामाजिक पहलू पर भी पर्याप्त प्रकाश डाला गया है। स्थानांग सूत्र में धर्म के विभिन्न रूपों की चर्चा करते हुए राष्ट्रधर्म, ग्रामधर्म, नगरधर्म, कुलधर्म, गणधर्म आदि का भी उल्लेख हुआ है। सामान्यतः ग्रामधर्म और नगरधर्म में विशेष अन्तर नहीं है। ग्राम एवं नगर के विकास, व्यवस्था तथा शान्ति के लिए जिन नियमों को बनाया है, उनका पालन करना। नगर में एक योग्य नागरिक के रूप में जीना नागरिक कर्तव्यों एवं नियमों का पूरी तरह पालन करना नगरधर्म है। आधुनिक सन्दर्भ में राष्ट्रधर्म का तात्पर्य राष्ट्रीय एकता एवं निष्ठा को बनाए रखना तथा राष्ट्र के नागरिकों के हितों का परस्पर घात न करते हुए राष्ट्र के विकास में प्रयत्नशील रहना है। राष्ट्रीय शासनों के नियमों के विरुद्ध कार्य नहीं करना, राष्ट्रीय विधि-विधानों का आदर करते हुए उनका समुचित रूप से पालन करना आदि राष्ट्रधर्म है। 91 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org