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________________ व्यवहारनय से बाह्य व्यवहार से पुष्ट निर्मल चित्त अध्यात्म है। फिर भी उपाध्याय चित्त की निर्मलता को धर्म और अध्यात्म का मूल आधार मानते हैं। दशवैकालिक सूत्र में कहा गया है-अहिंसा, संयम और तप में धर्म के सभी तत्त्व समाए हुए हैं अतः अहिंसा, संयम और तप से युक्त धर्म उत्कृष्ट मंगल है। शांत सुधारस में उपाध्याय विनयविजय ने दान, शील, तप और भाव से चार प्रकार के धर्म बताए हैं। यह धर्म के चार आधार-स्तम्भ हैं। मुनि समयसुन्दर ने भी अपनी सज्झाय में धर्म के चार प्रकार बताए हैं। अपने धन या सुख-सुविधाओं के साधनों का निःस्वार्थ भाव से दूसरों के हित के लिए उपयोग करना दान कहलाता है। उसमें भी अभयदान का विशेष महत्त्व है। धर्म का दूसरा आधार-स्तम्भ ब्रह्मचर्य है। तीसरा आधार-स्तम्भ तप है। यह बारह प्रकार का होता . है। छः बाह्य तथा छः आभ्यंतर तप से अचिंत्य आत्मशक्ति प्रकट होती है। दान की शोभा, शील की महत्ता, तप की श्रेष्ठता भाव पर आधारित है। भोजन में जो स्थान नमक का है, वही स्थान धर्म में भाव का है। ____ आत्मकेन्द्रित होकर यदि इन धर्म का पालन किया जाए तो वह अध्यात्म की श्रेणी में आता है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्मसार में कहा है-ज्ञान तथा क्रिया दोनों रूपों में अध्यात्म रहा हुआ है। जिनके आचरण में छल-कपट नहीं है, ऐसे जीवों में अध्यात्म की उत्तरोत्तर वृद्धि होती है। आचार्य हेमचन्द्र धर्म की व्याख्या करते हुए कहते हैं-दुर्गति में गिरते हुए प्राणी की जो रक्षा करे, वही धर्म है। धर्म की इस व्याख्या में भी शुभ अनुष्ठान और संयम दोनों ही आते हैं। यहाँ अभी तक जो भी धर्म की व्याख्या दी गई है, वे सब किसी-न-किसी रूप से सदाचरण या अनुष्ठान से संबंधित हैं। यदि मात्र बाह्यदृष्टि से इनका पालन होता है तो चाहे इन्हें व्यवहार धर्म कहा जा सके, किन्तु वस्तुतः ये धर्म या अध्यात्म नहीं हैं। अब हम धर्म की वह व्याख्या प्रस्तुत करेंगे, जहाँ धर्म और अध्यात्म एक हो जाते हैं। इस सन्दर्भ में धर्म की परिभाषा वत्थु सहावो धम्मो इस प्रकार की गई है। वस्तु का स्वभाव ही उसका धर्म है। जैसे जल का स्वभाव शीतलता है, अग्नि का धर्म उष्णता है, उसी प्रकार आत्मा का धर्म समत्व है। एक अन्य दृष्टि से अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तसुख को भी आत्मा का स्वभाव कहा गया है। आत्मधर्म को समझने के लिए पहले स्वभाव को समझना जरूरी है। अनेक बार हम आरोपित या पराश्रित गुणों को भी अपना स्वभाव मान लेते हैं, जैसे उनका स्वभाव क्रोधी है। प्रश्न यह उठता है कि क्या क्रोध स्वभाव है? वस्तु का स्वभाव उसे कहते हैं, जो हमेशा उस वस्तु में निहित हो। स्वभाव में रहने के लिए किसी बाहरी संयोग की आवश्यकता नहीं होती है। वस्तु से उसके स्वभाव को अलग नहीं किया जा सकता, जैसे जल का स्वभाव शीतलता है तो हम शीतलता को जल से अलग नहीं कर सकते। यदि अग्नि के संयोग से उसे गर्म भी करते हैं तो अग्नि को हटाने पर वह स्वाभाविक रूप से थोड़ी ही देर में ठण्डा हो जाता है। ठीक उसी प्रकार मनुष्य का स्वभाव समत्व हो या क्रोध, इस कसौटी पर दोनों को कसकर देखें तो पहली बात यह है कि क्रोध कभी स्वतः नहीं होता है। बिना किसी बाहरी कारण हम क्रोध नहीं करते हैं। गुस्से के लिए किसी दूसरे का होना जरूरी है। प्रतिपक्षी के दूर हो जाने पर गुस्सा शांत हो जाता है। पुनः गुस्सा आरोपित होता है तो उसे छोड़ा जा सकता है। कोई 93 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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