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________________ आत्मद्रव्य के छः कारक 1. ज्ञान करने वाली स्वयं की आत्मा-कर्ता 2. जिसको प्राप्त करना हो वह आत्मा-कर्म 3. स्वयं की आत्मा को आत्मा के द्वारा जानना-करण 4. जानने का हेतु क्या-आत्मा के लिए (विद्वत्ता आदि के लिए नहीं)-सम्प्रदान 5. आत्मा को कहाँ से जानना-स्वयं की आत्मा में से ही जानना, शास्त्र में से नहीं, बीज में से ही वृक्ष उत्पन्न होता है, अन्यत्र नहीं। इस प्रकार अन्तरात्मा की खोज करने से उसमें से ही परमात्म स्वरूप प्रकट होता है-अपादान। 6. आत्मा को कहाँ रहकर ढूंढना-मन्दिर, मस्जिद, गुरुद्वारा या जंगल में नहीं बल्कि स्वात्मनिष्ठ बनकर ही उसे प्राप्त कर सकते हैं, जान सकते हैं-अधिकरण। इस प्रकार एक ही आत्मद्रव्य में षट्कारक की घटना होती है, ऐसी आत्मदशा परादृष्टि में होती है, यह निश्चय अध्यात्म की बात हुई। व्यवहार नय की दृष्टि में अध्यात्म व्यवहार अध्यात्म में भी आत्मा के शुद्ध स्वरूप की प्राप्ति का उद्देश्य तो होना चाहिए। साध्य 'को लक्ष्य में नहीं रखकर धनुर्धर के बाण फेंकने की चेष्टा जिस प्रकार निष्फल होती है, वैसे ही साध्य को स्थिर किये बिना ही की गई सभी क्रियाएँ निरर्थक होती हैं, इसलिए शुद्ध आत्मस्वरूप को प्रकट करने का, उसे प्रकाश में लाने का जो लक्ष्य है, उसे ध्यान में रखना आवश्यक है। आत्मा को लक्ष्य बनाकर मन-वचन-काय योग के द्वारा जो सद्धर्म का आचरण किया जाता है, वह व्यवहारनय अध्यात्म है। पंचाचार की प्रवृत्ति व्यवहार अध्यात्म और उत्पन्न होने वाले आत्मपरिणाम निश्चय अध्यात्म है। चूँकि व्यवहार पराश्रित होता है, इसलिए व्यवहारनय के आधार पर आत्मा कर्ता, कारक और सम्प्रदान कारक है। पंचाचार का पालन-कर्मकारक। इन्द्रिय अर्थात् उपकरण-करण कारक। शास्त्र वचन-अपादान कारक। उपाश्रयादि-अधिकरण कारक। यह लोक प्रचलित व्यावहारिक अध्यात्म है। अध्यात्म का सरल तथा सीधा भावार्थ सत्य बोलना, न्याय तथा नीतिपूर्वक आचरण करना, जीवदया का पालन करना, परोपकार करना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, क्षमा रखना, सरलता रखना, लोभ नहीं करना, प्रतिज्ञा का पालन करना, गम्भीर रहना, गुणग्राही होना आदि है। यह व्यवहार अध्यात्म है। पूज्यता की प्रवृत्ति इन्हीं गुणों पर आश्रित है, परन्तु इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि आत्मदृष्टि का प्रकाश ही धार्मिक आचरण का रहस्य है। साध्य को भूल जाएं और साधनों को ही साध्य समझ लें, तो कभी भी मंजिल प्राप्त नहीं होगी। वंदन, पूजन, तप, जप सभी के उपरान्त भी आत्मा को ही 85 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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