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________________ उसमें सब रंग हैं। विश्लेषण करते-करते हम यहाँ तक आ जाते हैं कि वह परमाणुओं से बनी है। ये दोनों दृष्टियां मिलकर ही सत्य को पूर्ण बनाती हैं। जैन दर्शन की भाषा में यह निश्चय और व्यवहारनय कहलाती हैं।" बौद्ध दर्शन में इन्हें लोक संवृत्ति सत्य और परमार्थ सत्य कहा जाता है। शंकराचार्य ने ब्रह्म को परमार्थ सत्य और प्रपंच को व्यवहार सत्य माना है। प्रोफेसर आइन्स्टीन के अनुसार सत्य के दो रूप किये बिना हम उसे छू नहीं सकते। (We can only know the relative truth but absolute truth is known only to the universal observer, Mysterious Universe, p. 138) निश्चय दृष्टि अभेद प्रधान होती है, व्यवहार दृष्टि भेद-प्रधान। निश्चय दृष्टि के अनुसार जीव शिव है और शिव जीव है। दोनों में भेद नहीं है। व्यवहार दृष्टि कर्मबंध आत्मा को जीव कहती है और कर्ममुक्त आत्मा को शिव। जीवः शिवः शिवौ जीवो, नान्तरं शिवजीवयोः। कर्मबन्धो भवेज्जीवः कर्म मुक्तः सदा शिव।। अध्यात्म का स्वरूप एवं विश्लेषण निश्चयनय की दृष्टि से अध्यात्म ... निश्चय नय स्वाश्रित होता है, इसलिए इसके अनुसार ऐसे विशुद्ध स्वयं की आत्मा में रमण करना ही अध्यात्म कहलाता है। ध्यानस्तव नामक ग्रंथ में निश्चय नय का विषय कर्ता-कर्म आदि की अभिन्नता और व्यवहार नय का विषय उनकी परस्पर भिन्नता है।" इस बात का अनुसरण करते हुए हम कह सकते हैं कि आत्मा आत्मा के द्वारा, आत्मा के लिए, आत्मा में से आत्मा में रहकर आत्मा को प्राप्त करे, वही आत्मा कहलाता है। इसका यह व्यावहारिक उदाहरण है, जैसे-रसोई में बालिका भूख को मिटाने के लिए डिब्बे में से हाथ द्वारा मिठाई को लेकर खाती है। यहाँ एक क्रिया के छः कारक हैं और सभी भिन्न-भिन्न हैं। _ 1. बालिका-कर्ता 2. मिठाई-कर्म 3. हाथ-करण 4. भूख को मिटाना-संप्रदान 5. डिब्बे में से निकालना-अपादान और 6. रसोईघर-अधिकरण। निश्चयनय के अनुसार आत्मद्रव्य में भी छः कारक की यह घटना घटित हो सकती है। एक स्तवन में कवि ने लिखा है कारक षटक थया तुझ के आतम तत्व मा धारक गुण समुदाय सयल एकत्व मां।। 84 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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