________________ भूल जाएं अर्थात् मूल साध्य को ही भूल जाएं तो यह ऐसी स्थिति होगी, जैसे बाराती को तो भोजन कराना किन्तु वर को पूरी तरह से भूल जाना। अध्यात्म तत्त्वावलोक में कहा गया है-ज्ञान भक्ति, तपश्चर्या और क्रिया का मुख्य उद्देश्य एक ही है कि चित्त की समाधि द्वारा कर्म का लेप दूर करके आत्मा के स्वाभाविक गुणों को प्रकट करना। उत्पत्ति, विनाश, स्थिरता आदि को परस्पर अनुविद्ध मानकर पदार्थ का निरूपण करने वाला दृष्टिकोण द्रव्यार्थिक दृष्टि है। इसमें गुण-पर्याय को गौण करके द्रव्य को प्रमुखता देते हैं। इसे द्रव्यार्थिक नय भी कहा जाता है। द्रव्य को गौण करके गुण तथा पर्याय का प्रतिपादन करने वाला दृष्टिकोण पर्यायार्थिक नय कहलाता है। __ वस्तु की विशुद्धि स्वभाव दशा को ध्यान में रखकर पदार्थ का निरूपण करे तो विशुद्ध निश्चयनय एवं अविशुद्ध अवस्था को ध्यान में रखकर वस्तु का निरूपण करे तो उसे अविशुद्ध निश्चयनय कहते हैं। इस व्याख्या के अनुसार उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य से युक्त पदार्थ की व्याख्या करने वाले द्रव्यार्थिक नय के अध्यात्म के विषय में चार दृष्टिकोण हैं1. विशुद्ध द्रव्यार्थिक नय के अनुसार औदायिक आदि भावों से निष्पन्न संसारी दशा से निवृत्त परमात्म भाव से अभिव्यक्त तथा द्रव्यत्व रूप में अनुगत-ऐसा विशुद्ध आत्मद्रव्य ही अध्यात्म है। 2. विशुद्ध पर्यायार्थिक नय के अनुसार बहिरात्मदशा को नष्ट करके आत्म रूप में अनुगत जीव द्रव्य में परमात्म भाव का आविर्भाव अध्यात्म कहलाता है। 3. अशुद्ध द्रव्यार्थिक नय का अभिप्राय यह है कि कर्म मल के कारण प्राप्त भवाभिनंदी की दशा से सहज रूप से निवृत्त होकर अपुनर्बंधक आदि अवस्था को प्राप्त और स्वरूप में अनुगत-ऐसा विशुद्ध हो रहा आत्म-द्रव्य ही अध्यात्म है। 4. अशुद्ध पर्यायार्थिक नय के अनुसार उत्कृष्ट संक्लेश में उत्पन्न भोगी अवस्था को नष्ट करके आत्मस्वरूप के अनुगत आत्मद्रव्य में योगीदशा की अभिव्यक्ति अध्यात्म है। जब चरणकरणानुयोग चारित्र के मूल-गुण एवं उत्तर-गुण पर अपना ध्यान केन्द्रित किया जाता है, तब चरणकरणानुयोग की दृष्टि से अध्यात्म का अर्थ है-चारित्राचार और चारित्र के मूल गुण तथा उत्तरगुण को केन्द्र में रखकर आत्मा, अध्यात्म आदि पदार्थों का निरूपण करना। चरणकरणानुयोग की परिधि में रहकर शुद्ध एवं अशद्ध ऐसे द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक नयों के अभिप्राय से अध्यात्म का चार प्रकार से विवेचन कर सकते हैं1. चरणकरणानुयोग की दृष्टि से विशुद्ध द्रव्यार्थिक नय के अनुसार अयतना आदि से युक्त असंयत आचार को परिहार करके यथाख्यात चारित्र के पालन में विरक्त विशुद्ध आत्मद्रव्य ही अध्यात्म है। 2. विशुद्धपर्यायार्थिक नय के अनुसार प्रमाद आदि से उत्पन्न हुए असंयत आचार का त्याग करके आत्म-द्रव्य में यथाख्यात चारित्र का प्रादुर्भाव होना ही अध्यात्म है। 86 Jain Education Interational For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org