________________ भी अतृप्ति का अनुभव कर रहा है, क्योंकि वह आध्यात्मिक मूल्यों को भूल चुका है। सम्यक् समझ के अभाव में स्व को भूलकर शरीर के स्तर पर ही सारा जीवन केन्द्रित हो गया है। अधिकांश मनुष्यों का दृष्टिकोण पदार्थवादी हो गया है। आध्यात्मिक मूल्यों का निरन्तर हास हो रहा है। वर्तमान में समस्याओं का हल तभी हो सकता है, जब व्यक्तियों को ठीक मार्गदर्शन मिले, जिससे उनके दृष्टिकोण में परिवर्तन आए एवं उनकी जीवनशैली में सुधार हो। यह मार्गदर्शन अध्यात्मज्ञान ही दे सकता है। आध्यात्मिक जीवनशैली ही व्यक्ति की अशांति, हिंसा, क्रूरता, उपभोक्तावाद, भ्रष्टाचार, अनैतिकता, प्रदूषण आदि के खतरों से बचने के लिए संयम का सुरक्षा कवच प्रदान कर सकती है। अध्यात्म के अभाव में सम्पूर्ण विद्या, वैभव, विलास, विज्ञान शांति देने में समर्थ नहीं हैं। आज तनाव ग्रसित वातावरण में अध्यात्म की आवश्यकता महसूस की जा रही है। आवश्यकता आविष्कार की जननी होती है। सुखप्रद, शांतिप्रद, कल्याणप्रद, संतोषप्रद जीवन व्यवहार हेतु आध्यात्मिकता की जरूरत नहीं है। विषयों और कषायों के जाल में फंसा, सम्यग् दर्शन के अभाव में भोगासक्त मानव कभी सुख को प्राप्त नहीं कर पाता। प्रमाद की गहरी नींद में सोई मानव जाति के लिए किसी कवि ने संदेश दिया है भाई सूरज जरा इस आदमी को जगाओ, भाई पवन जरा इस आदमी को हिलाओ। यह आदमी जो सोया पड़ा है, सच से बेखबर जो सपनों में सोया पड़ा है, भाई पंछी जरा इसके कान पर गीत गाओ।। अध्यात्म रूपी पंछी ही प्रमाद में सोए हुए मानव को जागृत कर सकता है, उसे सजगता का पाठ पढ़ा सकता है। मानसिक संताप से संतप्त प्राणियों को देखकर ज्ञानियों के मन में करुणा उभर आती है। उपाध्याय यशोविजय के हृदय में भी ऐसा ही करुणा का बीज आप्लावित हुआ होगा, जो उन्होंने भटके हुए प्राणियों को मार्गदर्शन देने हेतु ज्ञानसार, अध्यात्मसार, अध्यात्मोपनिषद्, आत्मख्याति, ज्ञानार्णव जैसे विशाल ग्रंथों की रचना की। संक्षेप में हम कह सकते हैं कि भौतिकवाद मिथ्यादृष्टि है और अध्यात्मवाद सम्यक्दृष्टि है। - अध्यात्मवाद का अर्थ एवं स्वरूप बिना प्राण का शरीर जैसे मुर्दा कहलाता है, ठीक उसी प्रकार बिना अध्यात्म के साधना निष्प्राण है। अध्यात्म का अर्थ आत्मिक बल, आत्मस्वरूप का विकास या आत्मोन्नति का अभ्यास होता है। आत्मा के स्वरूप की अनुभूति करना अध्यात्म हे। 'अप्पा सो परमप्पा' अर्थात् आत्मा ही परमात्मा है। चाहे चींटी हो या हाथी, वनस्पति हो या मानव, सभी की आत्मा में परमात्मा समान रूप से रहा हुआ है, किन्तु कर्मों के आवरण से वह आवरित है। कर्मों की भिन्नता के कारण जगत् के प्राणियों में भिन्नता होती है। कर्मों के आवरण जब तक नष्ट नहीं होते, तब तक आत्मा परतंत्र है, अविद्या से मोहित है, संसार में परिभ्रमण करने वाली एवं दुःखी है। इस परतंत्रता या दुःख को दूर तब ही कर सकते हैं जब कर्मों के आवरण को हटाने का प्रयास किया जाए। जिस मार्ग के द्वारा आत्मा कर्मों के भार से हल्की होती है, कर्म क्षीण होते हैं, वह मार्ग ही अध्यात्म का मार्ग कहलाता है। जब से मनुष्य सत्य बोलना या सदाचरण करना सीखता है, तब से 76 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org