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________________ . ही अध्यात्म की शुरुआत होती है। अध्यात्म का शिखर तो बहुत ही ऊँचा है। उसकी तरफ दृष्टि करते हुए कितने ही व्यक्ति हतोत्साहित हो जाते हैं और अध्यात्म का साधना-मार्ग बहुत ही कठिन समझने लगते हैं। यह बात जरूर है कि सीधे ऊपर की सीढ़ी या मंजिल पर नहीं पहुंचा जा सकता किन्तु क्रमशः प्रयास करने से आगे बढ़ सकते हैं और अंत में मंजिल पर पहुंच सकते हैं। उत्तम गुणों का संचय करने से ही अध्यात्म में आगे बढ़ने का रास्ता मिल जाता है और फिर ऐसी आत्मशक्ति जागृत होती है कि उसके द्वारा अध्यात्म के दुर्गम क्षेत्र में पहुंचने का सामर्थ्य प्रकट होता है। अध्यात्मवाद का व्युत्पत्तिपरक अर्थ आत्मानं अधिकृत्य यद्वर्तते तद् अध्यात्म-आत्मा को लक्ष्य करके जो भी क्रिया की जाती है, वह अध्यात्म है। उपाध्याय यशोविजय भी अध्यात्म शब्द का योगार्थ (शब्द और प्रकृति के संबंध से जो अर्थ प्राप्त होता है, उसे योगार्थ कहते हैं) बताते हुए कहते हैं कि आत्मा को लक्ष्य करके जो पंचाचार का सम्यक् रूप से पालन किया जाता है, उसे अध्यात्म कहते हैं। दूसरे शब्दों में विशुद्ध अनन्त गुणों के स्वामी परमात्मतुल्य स्वयं की आत्मा को लक्ष्य करके ज्ञानाचार, दर्शनाचार, चारित्राचार, तपाचार और विर्याचार का पालन किया जाता है, वह अध्यात्म कहलाता है। अध्यात्म के विषय में बहिरात्मा का अधिकार नहीं है उसी प्रकार अंतरात्मा को उद्देश्य करके भी अध्यात्म की प्रवृत्ति नहीं होती किन्तु स्वयं में रहे हुए परमात्म-स्वरूप को प्रकट करने के लिए अंतरात्मा के द्वारा जो पंचाचार का सम्यक् रूप से परिपालन किया जाता है, वही अध्यात्म कहलाता है। .. आनंदघनजी ने भी आत्मस्वरूप को साधने की क्रिया को अध्यात्म कहा है। विभिन्न सन्दर्भो में अध्यात्म के अनेक अर्थ होते हैं, अन्तरात्मा में होने वाली प्रवृत्ति अध्यात्म है। मन से परे, जो चैतन्य है, वही अध्यात्म है। शरीर, वाणी और मन की भिन्नता होने पर भी उनमें चेतनागुण की जो सदृशता है, वह अध्यात्म है। आत्म-संवेदना अध्यात्म है। वीतराग चेतना अध्यात्म है। आचारांग सूत्र में भी अध्यात्म पद का अर्थ-'प्रिय और अप्रिय का समभावपूर्वक संवेदन' किया है। जैसे स्वयं को प्रिय और अप्रिय के अनुभव में सुख-दुःख की अनुभूति होती है, वैसे ही दूसरे जीवों को भी सुख-दुःख की अनुभूति होती है। अध्यात्म शब्द अधि+आत्मा से बना है।' अधि उपसर्ग भी विशिष्टता का सूचक है। जो आत्मा की विशिष्टता है, वही अध्यात्म है। चूंकि आत्मा ज्ञानस्वरूप ही है अतः ज्ञाता-द्रष्टा भाव की विशिष्टता ही अध्यात्म है। उपाध्याय यशोविजय ने अध्यात्म का स्वरूप संक्षेप में बताते हुए कहा है कि-जिन साधकों की आत्माओं के ऊपर से मोह का अधिकार चला गया है, ऐसा साधक आत्मा को लक्ष्य करके शुद्ध क्रिया का आचरण करता है, उसे अध्यात्म कहते हैं। इस प्रकार परमात्मस्वरूप प्रकट करने का लक्ष्य, पंचाचार का सम्यक् परिपालन और मोह के अधिपत्य से रहित चेतना-इन तीनों का समन्वय अध्यात्म कहलाता है। मोक्ष प्राप्ति के लिए की गई कोई भी क्रिया बिना अध्यात्म-चेतना के संभव नहीं है। 77 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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