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________________ से न होकर आत्मा से होती है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि आत्मा ही अपने सुख एवं दुःखों का कर्ता एवं भोक्ता है। वही अपना मित्र एवं शत्रु है। सुप्रतिष्ठित अर्थात् सद्गुणों में स्थित आत्मा मित्र है एवं दुष्प्रतिष्ठित में स्थित आत्मा शत्रु है। आतुरप्रकरण नामक जैन ग्रंथ में अध्यात्म का हार्द स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि ज्ञान और दर्शन से युक्त आत्मतत्त्व ही मेरा है, शेष सभी बाह्य पदार्थ संयोग से उपलब्ध हुए हैं। इसलिए ये मेरे अपने नहीं हैं। इन संयोगजन्य उपलब्धियों को अपना मान लेने या उन पर ममत्व रखने के कारण ही जीव दुःख को प्राप्त होता है। अतः उन सांयोगिक पदार्थों के प्रति ममत्व भाव का सर्वथा विसर्जन कर देना चाहिए। संक्षेप में जैन अध्यात्मवाद के अनुसार देह आदि सभी आत्मोत्तर पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग ही साधना का मूल उत्स है। वस्तुतः जहाँ अध्यात्मवाद पदार्थ ही परम मूल्य बन जाता है, अध्यात्म में आत्मा का ही परम मूल्य होता है। जैन अध्यात्मवाद आत्मोपलब्धि के लिए पदार्थों के प्रति ममत्व बुद्धि का त्याग आवश्यक मानता है। उसके अनुसार ममता के विसर्जन से ही समता (Equanimity) का सर्जन होता है। __ अध्यात्म का मार्ग एक ऐसा मार्ग है, जो व्यक्तियों की मानसिक, वाचिक एवं कायिक प्रवृत्तियों का परिष्कार, परिमार्जन और अन्ततः परिशोधन कर, साधक को परम निर्मल शुद्ध परमात्म स्वरूप तक पहुंचा देता है। जिसके हृदय में अध्यात्म प्रतिष्ठित है, उसके विचार निर्मल, वाणी निर्दोष और वर्तन निर्दभ होता है। आध्यात्मिक जीवनशैली में वास्तविक शांति एवं प्रसन्नता होती है, जो केवल भौतिक जीवन में अत्यन्त आसक्त रहते हुए आध्यात्मिक जीवन के आस्वादन से असंस्पृष्ट रहता है, वह अधूरा है, अशांत है, दुःखी है। आज भौतिक विकास की दृष्टि से मानव अपनी चरम सीमा तक पहुंच चुका है। विज्ञान ने अनेक सुख-सुविधाओं के साधन उपलब्ध करा दिये हैं, लेकिन सारे विश्व में अशांति ज्यों की त्यों बनी हुई है। हिंसा और आतंक से सम्पूर्ण विश्व सुलग रहा है। अन्तर्राष्ट्रीय संघर्ष, राष्ट्रीय संघर्ष, सामाजिक संघर्ष एवं पारिवारिक संघर्ष में निरन्तर वृद्धि हो रही है। शहरीकरण और औद्योगिकरण की अति के अनेक दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। विश्व के सामने समस्याओं का अम्बार लगा हुआ है। जितनी सुखसुविधा बढ़ रही है, उतनी ही अशांति, तनाव एवं संघर्ष भी बढ़ रहे हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि 'सव्वे कामा दुहावह' किसी भी वस्तु की कामना मनुष्य के मन में अशांति उत्पन्न करती है। जितनी इच्छाएँ, उतना दुःख। आज मनुष्य आवश्यकताओं के लिए नहीं, इच्छाओं की पूर्ति के लिए दौड़ रहा है। आवश्यकता-पूर्ति तो सीमित साधनों से भी हो जाती है किन्तु इच्छाओं की कभी पूर्ति नहीं होती है। उत्तरध्ययन सूत्र में कहा गया है कि इच्छाएँ आकश के समान अनन्त होती हैं। उनकी पूर्ति होना असंभव है। इच्छाओं के जाल में फंसकर आज व्यक्ति अपनी शांति, संतोष और सुख भस्मीभूत कर रहा है। एक इच्छा पूरी होने पर दूसरी जागृत हो जाती है और अशांति का प्रवाह निरन्तर बना रहता है। उपाध्याय यशोविजय ने ज्ञानसार के 7वें अष्टक की तीसरी गाथा में बहुत मार्मिक बात कही है-हजारों नदियाँ सागर में गिरती हैं, फिर भी सागर कभी तृप्त नहीं हुआ, उसी प्रकार इन्द्रियों का स्वभाव भी अतृप्ति का है। अल्पकाल के लिए क्षणिक तृप्ति अवश्य होगी, किन्तु क्षणिक तृप्ति की पहाड़ी में अतृप्ति का लावा रस बुदबुदाहट करता रहता है। आज मनुष्य भौतिक सुख-सुविधाओं के बीच में .75 . For Personal & Private Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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