________________ 21. प्रमेयरत्न मंजुषा, प्रशस्ति श्लोक-38 22. मौन एकादशी स्तवन, ढाल-12, कड़ी-4 23. यह मुनि के लिए साम्यशतक का उद्धार करके समताशतक की रचना यशोविजय गणि ने की है। इस ऊपर से यह यशोविजय गणि के शिष्य होने की कल्पना कर सकते हैं। 24-26. ज्ञानसार बालावबोध की वि.सं. 1768 में लिखी हस्तप्रति की पुस्तिका वि.सं. 2007 में प्रकशित ज्ञानसार की आवृत्ति पृ. 198 में है। 27. न्यायाचार्य यशोविजय स्मृतिग्रंथ का आमुख, पृ. 10 28. धनजी सूरा शाह, वचन गुरु नुं सुणी हो लाल। आणी मन दीनार, रजत ना खरस्यु हो लाल।। (सुजसवेली भाष) 29. पूर्व न्यायविशारदत्वं बिरुदं काश्यां प्रदत्तं बुधैः, न्यायाचार्य पदं ततः कृत शतग्रन्थस्य यस्वार्पितम्। -प्रतिमाशतक, यशोविजय, श्लोक-2, पृ. 1.. 30. शारद सार दया करो, आपो वचन सुरंग। तूं उठी मुझ ऊपरे, जाप करत उपगंग। तर्क काव्य नो ते तदा, दीधे वर अभिराम, भाषा पण करी कल्पतरु, शाखा सम परिणाम।। 31-32. यशोदोहन, मुनि यशोविजय, प्रकरण-3, विशिष्ट अभ्यास, पृ. 15 33. सत्तरत्रयालि चौमासु रहय, पाट नगर डभोई रे। तिहां सूरपदवी अणसरी, अणसरी करि पातिक धोई रे।। (सुजसवेली) 34. सुरति चोमासु रही रे, वाचक जस करि जोडी, वई. युग युग मुनि वधु वत्सरई रे, दियो मंगल कोडी।। (प्रतिक्रमण हेतु गर्भित सज्झाय) युग युग मुनि विद्युत्वत्सरई रे श्री जसविजय उवज्झाय सुरत चोमासु रही रे, कीधो ए सुपसाय रे। (अगियार अंग सज्झाय) 35. तेजोमय स्तुप पर जो लेख है वो संवत् 1745 वर्षे-प्रवर्तमाने मार्गशीर्ष मासे, शुक्ल पक्षे एकादर्श तिथि।। / / श्री श्री हरिविजयसूरीश्वर।।4।। कल्याण विजय गणि। शिष्य पं. श्री लाभविजय गणि। शिष्य पं. श्री जितविजय गणि। सोदर। सतीर्थ्य। पं. नयविजय गणि। शिष्य पं. श्री जसविजय गणि ना पादुका कारा पता। प्रतिष्ठितात्रेये। तच्चरणसेवकविजयगणि ना श्री राज नगरे।। 36. सीत तलाई पारवती तिहां थूभ अछे ससनूरो रे। ते महिथिं ध्वनि न्याय नी, प्रगटे निज दिवस पडूरो।। (सुजसवेली भाष) 37. इस पदुका की प्रतिकृति न्यायाचार्य यशोविजय स्मृति ग्रंथ में प्रथम पृष्ठ के सामने है। 38. यशोदोहन, मुनि यशोविजय, खण्ड-1, प्रकरण-4, पृ. 17 39. यशोविजय स्मृतिग्रंथ, मुनि यशोविजय, पृ. 10 68 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org