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________________ अतः हम कह सकते हैं कि न्यायलोक ग्रंथ में गागर में सागर युक्ति को चरितार्थ कर प्रस्तुत प्रकरण में प्रत्येक प्रमेयों का विस्तार से विवेचन प्रस्तुत करने के लिए विज्ञ वाचकवर्ग का यह ग्रंथ उपादेय रूप है। प्रतिमाशतक उपाध्याय यशोविजय ने 104 श्लोकों में इस ग्रंथ की टीका सहित रचना की। इस ग्रंथ में मुख्य चार वादस्थान हैं-1. प्रतिमा की पूज्यता, 2. क्या विधिकारिता प्रतिमा की ही पूज्यता है, 3. क्या द्रव्यस्तव में शुभाशुभ मिश्रता है, 4. द्रव्यस्तव पुण्यरूप है या धर्मरूप है। तर्कवाणी से प्रतिमालोपकों की मान्यता को छिन्न-भिन्न करने के बाद द्रव्यस्तव की सिद्धि के विषय में एक के बाद एक आगम प्रकरण पाठों के प्रमाण दिए हैं, जैसे-नमस्कार महामंत्र तथा उपधान विधि के विषय में महानिशीथ का पाठ, भगवतीसूत्रगत चमर के उत्पाद का पाठ, सुधर्मा सभा के विषय में ज्ञानासूत्रगत पाठ, आवश्यक नियुक्तिगत अरिहंत चेइआणं सूत्रपाठ, सूत्रकृतांगगत बौद्धमत खंडन, राजप्रश्नीय उपांगगत सूर्याभदेवकृत पूजा का पाठ, महानिशीथगत सावधाचार्य और श्री वज्रआर्य का दृष्टान्त द्रव्यस्तव के विषय में आवश्यक नियुक्तिगत पाठ, परिमर्दन आदि के विषय में आचारांग सूत्र का पाठ, प्रश्नव्याकरण टीकागत सुवर्णगुलिका का दृष्टान्त, द्रौपदीचरित्र के विषय में ज्ञाताधर्मकथा का पाठ, शाश्वत प्रतिमा के शरीरवर्णन के विषय में जीवाभिगम सूत्र का पाठ, प्रतिमा और द्रव्यलिंगी का भेद बताने वाला आवश्यक नियुक्ति का पाठ, पुरुष विजय के विषय में सूत्रकृतांग का पाठ। विस्तृत आगम पाठ के अलावा पूरे ग्रंथ में सौ के लगभग ग्रंथों के चार सौ से अधिक साक्षी पाठ दिए हैं। इस ग्रंथ में ध्यान, समापति, समाधि, जप आदि को प्राप्त करने के उपाय स्थान-स्थान पर बताये हैं। इस ग्रंथ की वाचकवर्य की बड़ी टीका के अनुरूप वि.सं. 1793 में पौणिमीर्य गच्छादिश भावप्रभसूरिजी ने छोटी टीका बनाई है। उपाध्यायजी ने ग्रंथ में प्रारम्भ के 69 श्लोक' में श्री जिनप्रतिमा का एवं जिनप्रतिमा की पूजा को दिखाने वाले आगमादिक को नहीं मानने वाले लुपक मत का खंडन किया है। उनके बाद के 9 श्लोक में धर्मसागरीय मत का खंडन किया है। उनके बाद 2 श्लोक में जिनप्रतिमा की स्तुति की है। उनके बाद 12 श्लोक'39 में पायचंद मत का एवं 3 श्लोक में पुण्यकर्मचारी के मत का खंडन किया है। दो श्लोक में जिनस्तुति करने का उपदेश दिया है। उनके अलावा जिनस्तुतिगर्भित नयभेदों का भी विवेचन है। 6 श्लोक में सर्वज्ञ प्रभु की एवं उनकी प्रतिमा की स्तुति दिखाकर अंत में प्रशस्ति का विवेचन किया है। इस ग्रंथ में सहजानंदी उपाध्याय ने परमात्मा का ध्यान धरने के लिए एवं समाप्ति यानी वीतराग की तुल्यता का संवेदन का पान करने के लिए जिनप्रतिमा कंठ आलम्बन को बहुत ही महत्त्व दिया है। इस ग्रंथ में स्थान-स्थान पर ध्यान, समाप्ति, समाधि भय आदि पाने का उपाय दिखाया है। इसमें उनके अनुभवामृत की सुधारस, अध्यात्मरस, प्रशमरस एवं अनालेख्य सहजानंद की प्राप्ति के लिए इस ग्रंथ की उपादेयता एवं आवश्यकता है। अपने भी उनके संवेदन की सुमधुर संगीत सरिता में स्नान करके सरल जीव दृष्टि के प्रति स्नेह सागरस्वामी के सर्वांगव्यापी सान्निध्य के सौभाग्य को प्राप्त करने के लिए वह दो पंक्ति का परामर्श कीजिए। 58 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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