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________________ शास्त्र इव नामादित्रये हृदयस्थिते सति भगवान् पुर इव परिस्फुरति, हृदय मिवानुप्रविशति, मधुरालापत्रिवानु वदति, सर्वागिणमिवनुभवति, तन्मीभावमिवापद्यते नेन च सर्वकल्याण्सिद्धिः।। 10 ___ अर्थात् शास्त्र की तरह भगवान के नाम, स्थापना एवं द्रव्य-इन तीन हृदय में स्थिर हो तो जैसे भगवान साक्षात् परिस्फुरायमान होता है, जैसे हृदय में प्रवेशता हो, ऐसा भास होता है, मधुर आलाप को अनुवाद करता हो, ऐसा अनुभव होता है, अपने देह के रोम-रोम में बस गये हों, ऐसी संवेदना होती है एवं उनमें तन्मय हो गये हों, ऐसा आभास होता है। इससे ही सभी प्रकार के कल्याण की सिद्धि होती है। ध्यान एवं योगरसिक इन्सान को परमानंद का अनुभव कराती ये पंक्तियां इस ग्रंथ की प्रधानता बढ़ाती हैं। यह ग्रंथ प्रतिमा के लिए जो शंका होती है, उस कीचड़ को दूर करने में सक्षम है एवं भव्यजीवों का पुण्य का विस्तार करने वाला यह ग्रंथ उपादेय है। वादमाला वादमाला नामक यह ग्रंथ उपाध्यायजी ने तीन भागों में बनाया हैप्रथमवादमाला-इसमें रचत्ववाद, सन्निकर्षवाद, विषयतावाद आदि का समावेश किया गया है। द्वितीय वादमाला में वस्तुलक्षण विवेचन, सामान्यवाद, विशेषवाद इन्द्रियवाद, अतिरिक्त शक्तिपदार्थवाद, अदृष्टसिद्धिवाद इन 6 वादस्थलों का समावेश है। तृतीय वादमाला में चित्ररूपवाद, लिंगोवहित लैंगिक भानवाद, दृव्यनाशहेतुता विचारवाद, सुवर्णतेजसत्वांतेजसत्ववाद, अंधकार भाववाद, वायुस्प्रार्शन प्रत्यक्षवाद और शब्दनित्यनित्यवाद-इन सात वादस्थलों का संग्रह है। - यशोविजयजी महाराज ने अपने ग्रंथों में एकान्तवादी मतों के खण्डन और स्याद्वाद सिद्धान्त के सम्यक् मण्डन को प्रायः सर्वत्र स्थान दिया है, जिसका उदाहरण वादमाला प्रकरण में भी है। यद्यपि वादमाला नामक तीन ग्रंथ उपाध्यायजी ने बनाये हैं। प्रथम वाद में तीन वाद का समावेश किया है। द्वितीय वादमाला में छः वादस्थलों का समावेश किया है। तृतीय वादमाला में सात वादस्थलों का समावेश किया है। यही तृतीय वादमाला वाचकवृंद के कर-कमलों में आज सचित्र विवेचन सहित उपलब्ध है। प्रथम चित्ररूप वाद में प्रारम्भ में मंगलाचरण करके स्वतंत्र चित्ररूप का स्वीकार करने वाले नव्यनैयायिकों में पूर्व पक्ष का सविस्तार प्रतिपादन दिया गया है, जिसमें अतिरिक्त चित्ररूप का स्वीकार करने वाले प्राचीन विद्वानों के मत का सविस्तार निरूपण एवं निराकरण किया है। ___ श्रीमद्जी ने प्रस्तुत वादमाला की भांति आत्मख्याति ग्रंथ में एवं नयोपदेश ग्रंथ में प्रौढ़युक्ति से चित्ररूपवाद का प्रतिपादन किया है। इस तरह कल्पलता की षष्ठ स्तबक की 37वीं कारिका में भी विस्तार से चित्ररूपवाद का निरूपण किया एवं वीतराग स्तोत्र की अष्टमप्रकाश की स्याद्वाद रहस्य नामक व्याख्या में 9वीं कारिका के विवरण में सविस्तार चित्ररूप की चर्चा करते हुए बीच में अधिक उत्कृष्ट चित्र दिया गया है। ऐसा उल्लेख उपाध्यायजी महाराज ने किया है। . 59 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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