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________________ इसी प्रकाश में द्वितीय आत्मविभुत्ववाद' यानी आत्मा को सर्वव्यापी मानने वाले नैयायिक मत का विस्तार से खण्डन किया है। प्रसंगशात शब्द पौदगलिक है, ऐसी जैन मान्यता का प्रतिपादन किया है। इसी प्रकाश के तृतीय वादस्थल है आत्मसिद्धि उसमें प्राचीन नास्तिक मत यानी चार्वाक दर्शन का खण्डन कर शरीर, इन्द्रिय, मन आदि से भिन्न ऐसे आत्मा की सिद्धि की है। भूतों में से चैतन्य का उद्भव होता है, यही चार्वाक मत की बात का निरसन किया है और लाघव से शरीर को ज्ञानसमवायी कारण मानकर एवं अनुमिति को मानसप्रत्यज्ञात्मक मानने वाले नवीन नास्तिक मत का भी निरसन किया है। यह विषय आत्मख्याति स्याद्वाद रहस्य तृतीय खण्ड एवं स्याद्वाद कल्पलता प्रथम स्तवक आदि ग्रंथों में वर्तमान में उपलब्ध है। - प्रथम प्रकाश का चतुर्थ वादस्थल है। ज्ञान पर प्रकाश खण्डनवाद। इसमें नैयायिक मत से ज्ञान परतः प्रकाश्य है। इस बात के सामने उपाध्याय ने ज्ञान स्वतः प्रकाश्य है, इस बात की सिद्धि की है। इस प्रकार प्रथम प्रकाश में उपाध्याय ने चार वादस्थलों का हृदयगम्य विवेचन किया है। .' द्वितीय प्रकाश में भी चार वादस्थल हैं, जो स्याद्वाद कल्पलता आदि में भी हैं। प्रथम वादस्थल . है-ज्ञाताद्वैतखण्डन। बौद्ध सम्प्रदाय में माध्यमिक, सौंत्रान्तिक, वैभाषिक, योगाचार ऐसे चार मत हैं। इसमें योगाचार बौद्ध विद्वान् ज्ञान से भिन्न घट-पट आदि पदार्थ के अस्तित्व को मानते नहीं हैं। उपाध्यायजी ने तर्क दिक बुद्धि से ज्ञानातिरिक्त बाध्य अर्थ की सिद्धि करके विज्ञानवादी योगाचार का खण्डन किया है। यह विषय स्याद्वाद कल्पलता चतुर्थ स्तबक एवं न्याय खण्डन खाद्य आदि ग्रंथ में भी प्राप्त होता है। ... द्वितीय प्रकाश के द्वितीय वादस्थल हैं-समवाय निरसनवाद। इसमें नैयायिक मत गुण-गुणी, अवयव-अवयवी के बीच समवाय संबंध मानते हैं। तत्वचिंतामणि' एवं उनकी आलोकटीका को उपाध्यायजी ने नजर समक्ष रखकर समवाय का खण्डन किया है। ____द्वितीय प्रकाश के तृतीय वादस्थल हैं-चक्षुअप्राप्यकारितावाद। इसमें नैयायिक मत के अनुसार आँख विषयदेश पर्यन्त जाकर विषय का साक्षात्कार उत्पन्न करता है। यानी चक्षु इन्द्रिय प्राप्यकारी है। तब उपाध्यायजी स्याद्वाद रत्नाकर, रत्नाकरावतारिका आदि ग्रंथों को आधार मानकर एवं नयी मुक्तियों के द्वारा श्रीमद्जी ने चक्षु इन्द्रिय को अप्राप्यकारी सिद्ध किया है। अन्तिम वादस्थल है-अभाववाद। नैयायिक मत अभाव अधिकरण से अतिरिक्त यानी भिन्न है। प्रभाकर मिश्र मतानुसार शुद्धाधिकरण बुद्धिस्वरूप अभाव को दिखाकर उनका खण्डन किया है। प्रस्तुत वादस्थल का उपसंहार करते ज्ञाना द्वैतनयानुसार प्रभाकर ने भिन्न मत को सन्मति दी है। तृतीय प्रकाश में धर्मास्तिकाय-अधर्मास्तिकाय आदि छः द्रव्य एवं पर्याय का संक्षिप्त विवेचन है। प्रस्तुत प्रकरण में प्रथम प्रकाश से द्वितीय प्रकाश का प्रमाण अल्प है। द्वितीय प्रकाश से तृतीय प्रकाश का प्रमाण अल्प है। फिर भी उपाध्यायजी ने अतिरिक्तकालवादी एवं पर्यायात्मक कालवादी के मतों का विवेचन किया है। एवं लोकाकाश में प्रत्येक आकाशप्रदेश में एक कालाणु का स्वीकार करना दिगम्बर मत का विवेचन एवं निरसन करना भी भूले नहीं हैं। 57 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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