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________________ इस ग्रंथ के कर्ता ने स्वोपज्ञ टीका नयामृततरंगिणी रची है। उनके विस्तृत एवं मननीय स्वोपज्ञ स्पष्टीकरण की शुरुआत सर्वज्ञ की वाणी के विजयोल्लेखसूचक पद्य के द्वारा होती है। न्याय खण्डनखण्डखाद्य-महावीरस्तव प्रकरणक उपाध्याय महाराज का रचित नव्यन्याय की विशिष्ट कोटि का यह ग्रंथ अत्यन्त अर्थगम्भीर एवं जटिल है। यह एक ही ग्रंथ वाचकवर्य के प्रखर पाण्डित्य का साक्षी है। यह 110 पद्य की संस्कृत कृति है। इसको कोई महावीरस्तव भी कहता है। इतना ही नहीं, नामान्तर के रूप में न्याय खण्डन खाद्य का उल्लेख भी किया है। इस कृति का मुख्य विषय महावीरस्वामी की वाणीरूप, स्याद्वाद की स्तुतिरूप है। उनके आद्य-पद्य में कहा है कि ऐंकार का उत्तम कवित्व की अभिलाषा को पूर्ण करने में कल्पवृक्ष के समान है। उनका रंग अभंग है। प्रस्तुत कृति में स्याद्वाद के लिए जो दूषण अन्यजनों ने दिये हैं, उनका निरसन किया है। विज्ञानवाद की आलोचना की है। न्यायखण्डखाद्य उपाध्याय महाराज की अपने हाथ से लिखी प्रति भी मिलती है। अतः न्यायखण्डनखण्डखाद्य यह ग्रंथ नव्यन्याय की शैली का गहन एवं जटिल ग्रंथ है। न्यायालोक उपाध्याय यशोविजय ने न्यायालोक में मुख्यता गौतमीय न्यायशास्त्र तथा बौद्ध न्यायशास्त्र के सर्वथा एकान्त गर्भित सिद्धान्तों की विस्तृत समालोचना की समीक्षा कर जैन न्याय के स्वरूप पर प्रकाश डाला है। इस प्रकरण ग्रंथ में तीन प्रकाश हैं। प्रथम प्रकाश में चार वादस्थलों का वर्णन किया गया है। इसमें प्रथम मुक्तिवाद, द्वितीय आत्मविभुत्ववाद, तृतीय आत्मसिद्धि तथा चतुर्थ वादस्थल ज्ञान का परप्रकाशत्व खण्डनवाद स्थल का निरूपण है। द्वितीय प्रकाश में भी कुल चार वाद स्थल हैं-1. ज्ञानाद्वैतखण्डन, 2. समवाय निरसनवाद, 3. चक्षु अप्राप्य कारितावाद, 4. अभाववाद। _तृतीय प्रकाश में धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि षद्रव्यों और उसी प्रकार उनके पदार्थों, का संक्षिप्त निरूपण किया गया है। इस संस्कृत ग्रंथ के प्रारम्भ में एक पद्य है। इसमें कर्ता ने अपने लिए धीमान शब्द का प्रयोग किया है। उनके साथ-साथ न्यायविशारद नाम की अपनी पदवी का भी उल्लेख किया है। अंत में छ: पदों की प्रशस्ति है। इसमें द्वितीय पद्य में यह ग्रंथ विजयसिंहसूरि के राज्य में रची होने का उल्लेख है एवं अन्तिम पद्य में कर्ता ने नम्रताद्योतक बात कही है कि हमारे जैसे प्रमादग्रस्त एवं चरणकरण से हीन व्यक्ति के लिए प्रवचन का राग वो ही भयसागर तीरने का एकमात्र जरिया है। ऐसी नम्रता से विभूषित व्यक्ति अपने को धीमान कहते हैं। उपर्युक्त सप्त पदों के अलावा शेष भाग गद्य में रचित हैं। प्रस्तुत ग्रंथ तीन प्रकाशन में विभक्त है। प्रथम प्रकाश में मोक्ष के स्वरूप संबंधी, नैयायिक प्रभाकर, त्रिदण्डी, बौद्ध, सांख्य, चार्वाक, सौंत्रातिक एवं वेदान्त के मतों का निरसन किया है। उनमें साथ-साथ उदयन एवं चिन्तामणिकार के मत की आलोचना की है। 56 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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