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________________ अध्याहार करना चाहिए, इनका क्या कारण? भंग सप्त ही क्यों? उनका कारण? आदि बातों का स्पष्ट उल्लेख है। दूसरे नयसमर्थन नाम के सर्ग में नय की उपयोगिता क्यों? सभी नय की मर्यादा। द्रव्य का स्वरूप, स्वभाव पर्याय, विभाव पर्याय, द्रव्यार्थिक नय की 10 मुद्रा, उनका स्वरूप, पर्यायार्थिक नय का स्वरूप, उनके पर्याय गुण, उनका स्वरूप, सामान्य विशेष का समावेश किसमें कैसे हो? आदि सभी का विवेचन सरल भाषा में दर्शाया है। नैगमनय के स्वरूप में धर्म, धर्मी, धर्म-धर्मी की बात में नैगम नय का अभिप्राय, उसमें सत्यासत्वता, नैगमाभास आदि का वर्णन है। संग्रहनय में लक्षण, सलक्षण भेद, संग्राहमास आदि का विवेचन है। - व्यवहारनय में उनके 14 प्रकारों में उपचार और उनका संबंध दिखाया है। ऋजुसूत्रादि चार नयों को पर्यायार्थिक नय के रूप में दिखाया है। ऋजुसूत्र नय का स्वरूप दिखाकर लक्षण एवं भेद का स्पष्टीकरण किया है। शब्द नय में लक्षण दिखाकर कालादिकी अपेक्षा से दिखाया है। एवंभूत नय के प्रसंग में लक्षण, स्वरूप, शब्दार्थ, नय के भेद आदि का विवेचन मिलता है। नयप्रदीप का गुजराती में अनुवाद डॉ. भगवानदास मनसुखभाई मेहता ने ई. सन् 1950 में किया है। ऐसा उल्लेख यशोदोहन पुस्तक में मुनि यशोविजय ने दिखाया है। ___अतः नयप्रदीप ग्रंथ में सात नयों का संक्षिप्त में विवेचन किया गया है। यह अति छोटा ग्रंथ प्राथमिक अभ्यर्थियों के लिए अतीव महत्त्वपूर्ण है। नयोपदेश इस ग्रंथ पर उपाध्याय स्वयं ने ही न्यायामृत तरंगिणी टीका रची है। उसमें विस्तार से बहुत ही स्पष्टता के साथ प्रस्थकादि दृष्टान्तों को देकर सप्त नयों का स्वरूप, सभी नयों की कब और कहां योजना करनी है? सभी नयों में कौन-से निक्षेप माने जाते हैं? ये विचार दर्शाये हैं। यह 144 पद्य की कृति है। - इसमें नय का लक्षण, शब्द बोध की सापेक्षता, नयवाक्य एवं प्रमाण वाक्य में अन्तर, नयज्ञान की संशय, समुच्चय, विभ्रम एवं प्रभा से विलक्षणता, नय की प्रमाणंशता, नैगमादि सप्त नयों एवं उनके लक्षण, जीव, अजीव एवं नोजीव और नोजीव की विचारणा, सिद्ध निश्चय से जीव ही हैं, इस दिगम्बर मत का खण्डन,14 दिगम्बर का नग्नता का उल्लेख : चार निक्षेपों की समझ शाश्वत एवं अशाश्वत प्रतिमा के पूजन, अजैन दर्शनों की उत्पत्ति, ऋजुसूत्रादि में से सौत्रान्तिक वैभाषिक योगाचार एवं माध्यमिक ऐसे बौद्धों में चार सम्प्रदायों का उद्भूत ज्ञान नय एवं क्रिया नय का परिचय आदि का विवेचन नयोपदेश में सटीक किया गया है।। नयोपदेश में उपाध्यायजी की नय संबंधी चरम प्रतिभा का तेज दिखाई देता है। नयोपदेश का 31वां पद्य नय रहस्य पृ. 127 में देखने को मिलता है। इसमें यह फलित होता है कि नयोपदेश नय रहस्य के पहले की रचना है और नयोपदेश का उल्लेख तत्वार्थ सूत्र की टीका में है। उससे पता चलता है कि तत्त्वार्थसूत्र की टीका के पहले की यह कृति सिद्ध होती है। - 55 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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