________________ जैसे केवलज्ञान और केवलदर्शन का उपयोग क्रमशः होता है या एक साथ? इस विषय में महामहिम श्रद्धेय तार्किक आचार्यश्री सिद्धसेन दिवाकर सूरि एवं आगमिक श्रद्धेय आचार्यश्री जिनभद्रगणि क्षमाश्रमण के ग्रंथों में विस्तृत चर्चा और एक-दूसरे के मत की समीक्षा देखी जाती है। चतुर एवं तीक्ष्ण बुद्धि वाले श्रीमद् उपाध्याय महाराज ने दोनों मत का गहन अध्ययन करके उन दोनों ने कौन-से नय को प्रधान बनाकर वैसा प्रतिपादन किया है, यह खोज कर ज्ञानबिन्दु ग्रंथ में सामंजस्य का दिग्दर्शन कराया है। ___अध्यात्मोपनिषद्। ग्रंथ में उपाध्याय महाराज कहते हैं कि तप परीक्षा शुद्ध शास्त्र वही है, जिसमें भिन्न-भिन्न नयों के विचार रूप घर्षण से चर्चा की प्रबल अग्नि उद्दीप्त होने पर भी कहीं तात्पर्य धूमिल नहीं होता। इस प्रकार तात्पर्य को कालिमा न लगे, इस प्रकार की नयावलब्धि प्रबल चर्चा, यह जैन शासन का भूषण है, दूषण नहीं है। इसलिए उपमितिकार ने भी कहा है नितष्टिममकारास्ते विवादं नय कुर्वते। अथ कुर्युस्ततस्तेभ्यो दातव्यंवैकवाकयता।। अर्थात् जिनका ममकार नष्टप्रायः हो गया है कि वे कभी विवाद नहीं करते हैं। यदि वे विवाद करने लगें तो उनकी प्ररूपणाओं में अवश्य एक वाक्यता लाने का प्रयास करना चाहिए। सारांश, कहीं भी शास्त्रों के तात्पर्य को धूमिल नहीं करना चाहिए। नयरहस्य ग्रंथ का अक्षरदेह नयप्रदीप जैसा लघु नहीं और नयोपदेश जैसा महान् भी नहीं किन्तु मध्यम है। इसमें केवल नयों का रहस्य यानी उसका स्वरूप, उसकी मान्यता और अपनी मान्यता की समर्थक कुछ युक्तियां ही प्रतिपादित हैं। इसलिए मध्यमरुचि धर्म के लिए यही ग्रंथ उपादेय होगा। मध्यमपरिणाम वाले ग्रंथ में श्रीमद् ने नय के अनेक पहलुओं को मनोहर ढंग से प्रस्तुत कर दिया है, जो नयपदार्थ के जिज्ञासुओं के लिए अतीव व्युत्पादक एवं उपकारी है। नय के विषय में उपाध्याय ने ज्ञानसार के अन्तिम अष्टक में नयज्ञान के फल का सुन्दर निरूपण इस प्रकार किया है सर्वनयों के ज्ञाता को धर्मवाद के द्वारा विपुल श्रेयस प्राप्त होता है जबकि नय से अनभिज्ञ जैन शुष्कवाद विवाद में गिरकर विपरीत फल प्राप्त करता है। निश्चय और व्यवहार तथा ज्ञान एवं क्रिया एक-एक पक्षों के विश्लेषण यानी आग्रह को छोड़कर शुद्ध भूमिका पर आरोहण करने वाले और अपने लक्ष्य के प्रति मूढ़ न रहने वाले तथा सर्वत्र पक्षपात से दूर रहने वाले, सभी नयों का आश्रय करने वाले सज्जन परमानंद होकर विजेता बनते हैं। सर्वनयों पर अवलम्बित ऐसा जिनमत जिनके चित्त में परिणत हुआ और जो उनका सम्यक् प्रकाशन करते हैं, उनको पुनः-पुनः नमस्कार है। निष्कर्ष यह है कि कदाग्रह का विमोचन और वस्तु का सम्यक् बोध नय का फल है और उससे सम्यग्दर्शन प्राप्त होता है और मुक्तिमार्ग की ओर प्रगति बढ़ती है। नय प्रदीप ____800 श्लोक परिमाण का यह ग्रंथ संस्कृत गद्य में रचा गया है। यह ग्रंथ सप्तभंगी समर्थन और नयसमर्थन नामक दो सर्गों में विभाजित है। इस ग्रंथ की टीका नहीं है। प्रथम सप्तभंगी समर्थन में सप्तभंग कैसे होता है? स्याद्वाद का स्वरूप। किसी स्थान पर स्यात् शब्द का उपयोग न हो तो भी 54 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org