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________________ तत्वेषु भवाभावादिश बलैकरूपत्वम्।" ___ जैन दर्शन गहन एवं गम्भीर है। वे अनन्त नय से ओतप्रोत हैं। जैसे हरिण बाघ के बदन को सूंघ नहीं सकते, वैसे ही नय के अंश को जानने वाले उनको सूंघ नहीं सकते हैं। प्रसंगवशात, अन्य कृतियों का अवतरण देकर भी इस निरूपण को समर्थित किया है। अजैन दर्शनकारों ने भी अनेकान्तवाद को स्वीकार किया है। इस बात का उल्लेख नैगमादि के सविस्तार आलेखन प्रसंग में द्रष्टव्य है दर्शितेयं यथाशास्त्रं नैगमस्य नयस्य दिक। कणहदृष्टिहेतुः श्री यशोविजय वाचकैः।।16 पत्र 54-अ में दिखाया गया है कि ऋजुसूत्र नय वह पर्यायनयरूप वृक्ष का मूल है। शब्दनय उनकी शाखा है, समभिरूढ़ नय उनकी प्रशाखा है एवं एवंभूत नय प्रशाखा की प्रशाखा है। कहीं दिगम्बर नव नय गिनते हैं। इस बात का भी यहाँ निरस्सन किया गया है। इस बात की विशेष महत्ता के लिए आपभ्रंशिक प्रबंध की भलामण की है। इस ग्रंथ की एक विशेषता यह भी है कि अध्यात्मसार आदि में सांख्य-दर्शन की उत्पत्ति संग्रहनय के एकान्त सेवन का आभारी है, किन्तु यहाँ अन्यत्र अशुद्ध द्रव्यार्थिक को नयरूप व्यवहारनय में से दिखाया है। . इस ग्रंथ में सप्तभंगी का विस्तृत विवेचन है। इसमें स्याद् वक्तव्य एवं नाम के त्रीजे भंग के 16 विकल्प दिखाये हैं। विशेष में सप्त भंगों के 3, 3, 10 10, 130, 130 एवं 130 प्रतिभंग दिखाये हैं। सम्पूर्ण प्रतिभंगों की संख्या 416 है। उनके अवांतर भंगों की विचारणा करें तो 1436 एवं सांयोगिक भंगादि गिनते हैं तो करोड़ों की संख्या में आता है। गुणार्थिक नय की अनुपपत्ति, दिगम्बर मान्यता के अनुसार गुण का लक्षण, दस सामान्य गुणों का एवं 16 विशेष गुणों का निरूपण द्रव्यार्थिक नय के 10, पर्यायार्थिक नय के 6, नैगम के 3, संग्रह के 2, व्यवहार के 2, ऋजुसूत्र के 2 एवं शब्दादि के 1-1 भेद मिलाकर 28 भेदों का निरूपण अमृत चंद्रकृत प्रवचनसारवृतिगत पर्याय विचारों का खंडन, अनेकान्तवाद में अनेकान्तवाद का स्वीकार। घटाभाव का अभाव जैसे घटस्वरूप हैं, वैसे एकान्तप्रज्ञापति दोष का एवं प्रमेयत्वादि के उदाहरण के द्वारा अनवस्था दोष का परिहर एवं उपसंहर के रूप में अनेकान्तवाद की महिमा एवं अजैन दर्शनों के द्वारा उनका सत्कार आदि का विवेचन दर्शाया है। द्वात्रिंशद द्वात्रिंशिका इस ग्रंथ में यशोविजय ने दान, देशनामार्ग भक्ति, धर्मव्यवस्था, साधु, कथा, योग, सम्यग्दृष्टि जिनमहत्त्व द्वात्रिंशिका अदि 32 विषयों का यथार्थ स्वरूप समझने के लिए 32 विभाग किए और प्रत्येक विभाग में 32 श्लोक की रचना की। इसमें एक विशेषता यह है कि प्रत्येक बत्तीशी के अंतिम श्लोक में परमानन्द शब्द आया है। इस ग्रंथ पर उपाध्याय ने तत्वार्थ दीपिका' नामक स्वोपज्ञ वृत्ति रची। टीका की श्लोक संख्या मिलाकर 5500 श्लोकों का सटीक ग्रंथ बना, जो अद्भुत अर्थ गम्भीर एवं अध्ययनीय है। पूज्य उपाध्याय महाराज को पू. समर्थ शास्त्रज्ञ आचार्य भगवंत श्री हरिभद्रसूरि महाराज के प्रति अनहद भक्ति एवं आदर था और उनके ग्रंथों का तलस्पर्शी ज्ञान भी था। इस ग्रंथों में अपनी सूझ एवं शैली से पूज्यपाद हरिभद्र सूरि के अनेक ग्रंथरत्नों का अर्थ संग्रहित किया गया है। अधिकतर योगदृष्टि 51 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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