________________ समुच्चय ग्रंथ के अर्थ का अनुपम संग्रह है। विशदीकरण एवं विवेचन इस ग्रंथ में देखने को मिलता है। योग, आगम एवं न्याय-इन तीनों का सिरमौर यह ग्रंथ है। ___300 वर्ष पूर्व प्रगट हुए महान् ज्ञानमशाल यानी श्रीमद् यशोविजय महाराज ने न्याय, आगम, योग, भक्ति एवं आचार आदि पर अनेक ग्रंथों की रचना की। पर इन पांचों विषय का विस्तार से विश्लेषण अगर कोई एक ग्रंथ में एक साथ किया हो तो वह है द्वात्रिंशद द्वात्रिंशिका प्रकरण। __ यह एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें बौद्ध दर्शन का न्याय, नैयायिक दर्शन का न्याय एवं जैन दर्शन के न्याय का एक साथ निरूपण किया गया है। यह एक ऐसा ग्रंथ है, जिसमें प्राचीन न्याय एवं नव्य न्याय की दोनों की परिभाषा एवं दोनों की शैली का प्रयोग किया गया है। इस ग्रंथ में आगमिक पदार्थों को भी नव्य न्याय की परिभाषा में परिष्कृत कर पारदर्शक स्वरूप में दर्शाया गया है। इस ग्रंथ की यह विशेषता है कि हरिभद्रीय योगवाङ्मय के पदार्थों, पातंजल योग संबंधी पदार्थों का बौद्ध दर्शन के योग संबंधी पदार्थों का एवं उपनिषदों के योग संबंधी पदार्थों को तर्कबद्ध करके संकलन यहां विश्लेषित है। तर्क, युक्ति, नय, प्रमाण का व्यापक प्रयोग करने पर भी इस ग्रंथ में श्रद्धाप्रधान भक्तिमार्ग उपासना मार्ग का उच्चकोटि का विवेचन है। सिर्फ पूर्व के ग्रंथों के विशिष्ट पदार्थों का चयन ही नहीं है बल्कि उनका विशदीकरण एवं वैशेष्टियकरण भी इस ग्रंथ में उपाध्याय ने दिखाया है। ऐसी-ऐसी अनेक विशेषताओं से भरा हुआ यह ग्रंथ वर्षों से अनेक विज्ञ वाचकों के आकर्षण का स्थान बना है। सर्वप्रथम जैन धर्म प्रसारण सभा भावनगर से इस ग्रंथ की प्रति वि.सं. 1966 में 189 पृष्ठों में प्रकाशित हुई थी। उसके बाद ई. सन् 1981 वीर संवत् 2008 में रतलाम से बत्तीसी प्रतीकारें प्रकाशित की। उनके बाद पूज्य आचार्य हेमचन्द्रसूरि म.सा. द्वारा रचित नूतन संस्कृत टीका एवं गुजराती विवेचन सहदान द्वात्रिंशिका वि.सं. 2040 में अहमदाबाद से प्रकाशित हुई, जिसमें 122 पृष्ठ थे। उसके बाद वि.सं. 2051 में यशोवाणी नाम की एक छोटी पुस्तिका प्रकाशित हुई, जिसमें प्रथम, द्वितीय एवं तृतीय आदि ऐसे ढाई बत्तीसी गुजराती विवेचन सह प्रकाशित हुई, जिमसें 59 पृष्ठ थे। इसी प्रकार परम पूज्य अभयशेखर विजय गणीवर द्वारा प्रथम आठ बत्तीसी का अनुवाद वि.सं. 2051 में दिव्यदर्शन ट्रस्ट से प्रकाशित हुआ, जिसमें पृष्ठों की संख्या 240 थी। तत्पश्चात् द्वात्रिंशद द्वात्रिंशिका प्रकरण (स्वोपज्ञ टीका) सहित सम्पूर्ण ग्रंथ नयी संस्कृत टीका एवं गुजराती विवेचन पू. मुनिराज यशोविजय म.सा. ने करके जैन जगत् को अनमोल भेंट दी है। उनका मुख्य प्रयोजन यही था कि नव्यन्याय की शैली में अभ्यास करने के लिए सभी जीव सक्षम नहीं होते हैं। इसलिए सामान्य जीव को ध्यान में रखकर एवं जिज्ञासु जीव इस बात से वंचित न रहे, ऐसी स्व-पर की भावना को ध्यान में रखते हुए इस ग्रंथ क अनुवाद किया जो बहुत ही सरल, सटीक एवं अनुमोदनीय है। 52 www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only Jain Education International