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________________ इस प्रकार दिगम्बर की मान्यताओं का निरसन उपाध्यायजी ने अनेक दलीलों के माध्यम से किया है, वो यथार्थ है। अनेकान्त व्यवस्था इस ग्रंथ में वस्तु के अनेकान्त स्वरूप का तथा नैगम आदि सात नयों का सतर्क प्रतिपादन किया गया है। मूल ग्रंथ 3357 श्लोक प्रमाण है। इस ग्रंथ के प्रारम्भ में कर्ता ने इस मंगलश्लोक की रचना की है। ऐन्द्रस्तोमनतं नत्वा, वीतरागं स्वयम्भुवम्। अनेकान्त व्यवस्थायां, श्रम! कच्छिद वितन्यते।। अनेक ऋद्धि समृद्धि से भरपूर भारतदेश विचारकों, दार्शनिकों, तत्त्वचिन्तकों, महापुरुषों की समृद्धि से भी भरपूर है। जैन, बौद्ध, वैदिक, नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य, मीमांसक आदि मुख्यता से अध्यात्मवादी तथा चार्वाक नास्तिक दर्शन की उत्पत्ति का मुख्य स्थान भी यही है। प्रत्येक दर्शनों की विचारधारा में यद्यपि स्पष्ट अन्तर दिखता है तो भी मुख्य रूप से दो विभाग पड़ते हैं-अनेकान्त स्याद्वाद की शिला पर चलने वाला जैन दर्शन तथा एकान्त को लेकर चलने वाले अन्य दर्शन। एकान्त दर्शन भी कोई नित्य को स्वीकारता है तो दूसरा अनित्य का समादर करता है। कोई द्रव्य और पर्याय एकान्त भेदस्वरूप है तो दूसरे एकान्त अभेद! एक की दृष्टि में पूरा जगत् सामान्य है तो दूसरे की दृष्टि में जगत् विशेष ही है। सामान्य का नाममात्र भी नहीं है। एक ईश्वर को मानने में पूर्ण रूप से निषेध करता है जबकि दूसरा कहता है कि ईश्वर की इच्छा के बिना एक पत्ता भी नहीं हिल सकता, साथ में यह भी मानकर चलते हैं कि बिना आत्मोद्धार मोक्ष नहीं है। इन सभी के सामने जैनमत स्याद्वाद को लेकर खड़ा हो जाता है। इस मत के अनुसार प्रत्येक वस्तु नित्य भी है और अनित्य भी है। द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, पर्याय की अपेक्षा से अनित्य है। द्वैत को स्वीकारते हैं, अद्वैत का भी तिरस्कार नहीं करते हैं। अपने पराक्रम से सर्वज्ञता या शुद्ध स्वरूप को प्राप्त किया हुआ आत्मा ही भगवान है, जो जगत्कर्ता नहीं है लेकिन जगत्द्रष्टा और मोक्षमार्गोपदेष्टा है। जैन दर्शन सभी दृष्टिकोणों को निष्पक्ष भाव से स्वीकारने के कारण स्याद्वाद शैली के विरुद से अलंकृत है। शुद्ध अनात्मवादी होने से नास्तिक दर्शन मन, शरीर, इन्द्रिय को शांति हो, वैसा कार्य करना ही धर्म है। 'ऋण कृत्वां घृतं पिबेत भस्मी भूतस्थदेहस्य पुनरागमनं कुतः' यह सिद्धान्त इनका है। अध्यात्मवादी दर्शन अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह प्रमाण आदि अंश में एकमत ही है लेकिन धर्म का स्वरूप, फल, मोक्ष, निर्वाण, परममुक्ति, आत्मा के स्वरूप विषय में भिन्न-भिन्न मान्यताएं हैं, जिनको समझने में कठिनाई होती है, लेकिन जैन सिद्धान्त स्याद्वाद वाला होने से द्रव्य, काल, भाव को दृष्टि में रखकर प्रत्येक विषय का स्पष्टीकरण करता है, जिससे प्रत्येक पदार्थ सहज रूप में समझ में आ जाता है। इस ग्रंथ के प्रारम्भ में तीन और अंत के 17 पद्य हैं। उनके अलावा पूरा विवेचन गद्य में है। इस ग्रंथ में प्राचीन न्याय एवं नव्य न्याय ऐसी दोनों पद्धतियों को स्थान दिया गया है। इसमें अनेकान्त के लक्षण को लेकर जैन एवं अजैन दर्शनों का संक्षिप्त में सटीक निरूपण किया है 50 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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