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________________ नहीं कहा जा सकता, एकान्तवादी दर्शन अपूर्ण है। अतः अनेकान्त मार्ग पर आस्था के साथ अग्रसर होना चाहिए। उपाध्याय यशोविजय ने इन सभी विषयों के प्रतिपादनार्थ जिस विशाल साहित्य की रचना की, वह है जैन तर्क परिभाषा जो एक अनमोल शास्त्र रल है। उपाध्याय ने इस ग्रंथ में पदार्थ का निर्णय करने के लिए उपयोगी तीन तत्त्व-प्रमाण, नय एवं निक्षेप का विस्तार से विवरण किया है। इस ग्रंथ में न केवल जैनशासन के विषयों का विवेचन ही है अपितु जैनेतर समुदायों और शास्त्रों के प्रतिपाद्य विषयों का संकलन तथा यथासम्भव तर्क द्वारा उनका प्रतिपादन और उनके सभी पक्षों को विस्तार के साथ समर्थन देकर अत्यन्त निष्पक्ष भाव से उनकी समीक्षा की गई है। उन शास्त्रों के सिद्धान्तों में जो भी त्रुटियां प्रतीत हुईं उनको समर्थ तर्कों द्वारा निरस्त करके उसकी कमी स्पष्ट रूप से प्रस्तुत की है। उन्होंने समदर्शित्व रूप से जो जहां युक्तियुक्त लगा, उसकी परीक्षा कर परिमार्जना करके अनेकान्त का विजयध्वज फहराने का पूर्ण एवं सफल प्रयास किया। इस ग्रंथ रचना का मुख्य उद्देश्य जगत् के प्रत्येक जीव यथार्थ तत्त्वज्ञान का उपदेश प्राप्त करे तथा राग-द्वेष की विभिन्न परिणतियों से मुक्त बनकर मतानुयायियों में परस्पर द्वेष का उपशम और सत्य ज्ञान को प्राप्त करे। उपाध्याय ने इन विषयों को लेकर स्थान-स्थान पर दार्शनिक दृष्टि से अपनी प्रतिभा के प्रकर्ष . को प्रदर्शित किया है, जो इस प्रकार है ___ उपाध्याय ने इस ग्रंथ में विशेषावश्यक भाष्य (वृहवृत्ति) एवं स्याद्वाद रत्नाकर-इन दो विराटकाय महाग्रंथों के आधार पर ही प्ररूपणा की है। प्रत्यक्ष प्रमाण के अधिकार में दिया गया ज्ञानपंचक का प्रतिपादन और निक्षेपपरिच्छेद में किया गया निक्षेप का निरूपण महंदअंशो भाष्य के आधार पर ही है एवं परोक्षप्रमाण में पांच प्रभेदों की प्ररूपणा नय परिच्छेद में सात नयों नयाभास का निरूपण, जैसे-स्याद्वाद रत्नाकर का संक्षेप ही है। संक्षिप्त लेखनकला उपाध्याय के ग्रंथों की अर्थगाम्भीर्यपूर्ण एवं अद्भुत अलौकिक है। स्थान-स्थान पर उपाध्याय की अनोखी तार्किक प्रतिभा के दर्शन भी देखने को मिलते हैं, जैसे 1. अन्यतरासिद्धि हेतु की स्वतंत्र हेत्वाभासता के सामने स्याद्वाद रत्नाकर में जो समाधान पृष्ठ 1018 में दिया है, उनको ही ग्रंथकार ने प्रस्तुत में पूर्वपक्ष रूप में दर्शाकर अलग से समाधान किया है। 2. एकान्तनित्यं अर्थ क्रियासमर्थ न भवति, क्रमयोगपधा भावात इस स्थान पर एकान्त नित्य पदार्थ को पक्ष बनाया है। जैनमत में ऐसा कोई पदार्थ प्रसिद्ध नहीं है। ऐसे स्थान पर ग्रन्थकार ने पक्ष की प्रसिद्धि जो की है, वो आश्चर्यजनक है। अन्य भी ऐसे स्थान ग्रंथ में समझने योग्य हैं। वाचकवर्य श्री उमास्वाति का वचन प्रमाणनयैरधिगमः (तत्त्वार्थ सूत्र, 1/6) के द्वारा पता चलता है कि वस्तुतत्त्व का स्वरूप प्रमाण एवं नय से होता है। वस्तु का ज्ञान प्रमाण नय उभयात्मक हो सकता है पर वस्तु का प्रतिपादन नयात्मक ही होता है, क्योंकि किसी भी वस्तु के सर्वअंश का एक साथ जानना तो संभव हो सकता है किन्तु प्रत्येक अंश की विवक्षा करना एक साथ संभव नहीं है। इसलिए तो सप्तभंगी में भी अव्यक्त नामक भंग को दर्शाया है। इस प्रकार नय जैनदर्शन का प्रमुख लक्षण है। सप्तनयों की ऐसी अद्भुत व्यवस्था अन्यत्र दुर्लभ है। नयपरिच्छेद में ग्रंथकार ने सप्त नयों का सुन्दर विवेचन किया 44 Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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