________________ दार्शनिक कृतियों का विवेचन जैन तर्क परिभाषा इस ग्रंथ की रचना यशोविजय ने 800 श्लोक परिमाण में नव्य न्याय की शैली में की है। इसमें स्याद्वाद दर्शन के पाया समान-1. प्रमाण, 2. नय, 3. निक्षेप नाम के तीन परिच्छेद हैं, जिससे विषयों का युक्तिसंगत निरूपण किया गया है। तर्कशास्त्र रूपी महल में चढ़ने के लिए यह ग्रंथ सीढ़ी समान है। जैसे पंडित मोक्षकार की तर्कभाषा को देखकर वैदिक पंडित केशवमिश्र स्वमतानुसारी तर्कभाषा की रचना की थी। उक्त दोनों तर्कभाषा का निरसन करते हुए वाचकवर्य ने इस ग्रंथ की रचना की हो, ऐसा लगता है। उपाध्याय यशोविजय ने अनेक ग्रंथों की रचना की है, जिसमें जैन तर्क परिभाषा उनकी एक अनूठी दार्शनिक कृति है। अनेक जैनाचार्यों के मुख से यह उद्गार सहज ही निकल जाते हैं कि अहो खेद की बात है कि आज सर्वज्ञ प्रणीत एवं गणधरों से गुम्फित द्वादशांगी का बारहवां अंग अनुपलब्ध है। यदि आज वह अगाध ज्ञान का सागर दृष्टिवाद उपलब्ध हो जाता तो प्रज्ञावानों को स्पष्ट ज्ञात हो जाता किं जो परमार्थ पदार्थों का यथार्थ स्वरूप यहां दर्शित है, वही अंशतः इतर सम्प्रदायों में है। जो इसमें नहीं है, वह अन्यत्र मिलना अशक्य है, क्योंकि मूलमार्ग के प्रणेता तीर्थंकर ही हैं। अन्य विद्वानों ने तो जैन शास्त्रों में प्रतिपाद्य तत्त्वों को अंशतः ग्रहण करके उन्हें एकान्तवाद का परिधान देकर अन्यान्य अनेक मतवादों को जन्म दिया है। ... जैन दर्शन में संसार प्रवाह रूप से अनादि अनन्त है। संसार अनादि होने से आत्मा का कर्मों के साथ सम्बन्ध भी अनादि है। उसका कर्ता कोई नहीं है। जीवन अनादिकाल से अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार भिन्न-भिन्न गतियों की प्राप्ति करता है तथा यथासमय भवितव्यता के परिपक्व होने पर आत्म-कल्याण के पथ पर आरूढ़ होने की चेष्टाएं करता है। ईश्वर के सम्बन्ध में जैनदर्शनकारों की धारणाएँ हैं कि ईश्वर कोई नित्य नैसर्गिक वस्तु नहीं है परन्तु जीव में उत्कृष्ट स्थिति का जैसे-जैसे ह्रास होता जाता है, वैसे-वैसे उससे ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप रत्नत्रयी की आराधना करने का प्रबल पुरुषार्थ जागृत होता है और जिससे वह घाति कर्मों का क्षय करके एवं करुणा भावना से अत्यन्त ओतप्रोत होने के कारण अन्तिम भव के तृतीय भव में उत्थित प्राणीमात्र के उद्धार सवि जीव करू शासनरसी की प्रबल भावना के प्राबल्य से उपार्जित तीर्थंकर नामकर्म का विपाक प्रादुर्भूत होता है, वे ही केवलज्ञान और जीवमुक्ति प्राप्त होने पर अर्हत तीर्थंकर परमेश्वर की महामहिम संज्ञा से विभूषित होते हैं और वे ही चतुर्विध धर्म शासन की स्थापना करते हैं, जिसमें आत्माओं को देशविरति सर्वविरति युक्त जीवादितत्व मोक्षमार्ग, सप्तभंगी, स्याद्वाद, सिद्धान्त, नय और प्रमाणों से युक्त देशना देकर मानव मात्र के आत्म-कल्याण का मार्ग प्रशस्त करते हैं। आगम के विषय में जैनमत की यह मान्यता है कि तीर्थंकर परमात्मा को जब घातिकर्मों के क्षय से लोकालोक प्रकाशक केवलज्ञान होता है तत्पश्चात् देवताओं से विरचित समवसरण में विराजित होकर देशना देते हैं। उनके मुखारविंद से निगदित उप्पनेइवा, विगमेइवा, धुव्वेइवा इस त्रिपदी को सुनकर अपूर्व क्षयोपशमय से गणधर द्वादशांगी ही सत्य है और एकमात्र वही मानव उत्थान का सही उपाय है। जिन शास्त्रों में वस्तु को सापेक्ष दृष्टि से न अपनाकर निरपेक्ष दृष्टि से स्वीकारा गया है वह सतशास्त्र 43 For Personal Jain Education International www.jainelibrary.org Private Use Only