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________________ है। नयों का स्पष्टीकरण अनेक प्राचीन ग्रंथों में उपलब्ध है। सूत्रकृतांगसूत्र, स्थानांगसूत्र, भगवतीसूत्र आदि अंगसूत्रों उपरान्त अनुयोगद्वार, आवश्यक नियुक्ति, शास्त्रवार्ता समुच्चय, संमतितर्क, तत्वार्थसूत्र, अनेकान्त, जयपताका, अनेकान्तवाद प्रवेश, रत्नाकर अवतारिका, प्रमाणनय, तत्त्वालोकालंकार, नयकर्णिका आदि अनेक ग्रंथों में इस विषय का प्रतिपादन है। यह तो श्वेताम्बरीय शास्त्रों की बात है पर दिगम्बरीय अनेक ग्रंथों में भी नय का विवेचन उपलब्ध है। इस प्रकार अनेक प्राचीन ग्रंथों के होने पर भी प्रस्तुत ग्रंथकार ने नव्यशैली में नयविषयक अनेक ग्रंथों की रचना की। सामान्य जिज्ञासु को नय की जानकारी के लिए-नयप्रदीप। उनसे अधिक जिज्ञासु के लिए प्रस्तुत ग्रंथ का-नय-परिच्छेद। उनसे अधिकतर जानकारी के जिज्ञासु के लिए-नय रहस्य। अनेकान्त व्यवस्था, तत्वार्थसूत्र के प्रथम अध्याय की टीका, नयोपदेश आदि अनेक ग्रंथ उपलब्ध हैं। इस ग्रंथ के नय परिच्छेद में ग्रंथकार ने नयविषयक पर्याप्त विवेचन दिया है। निक्षेप जैसा आगमिक प्रमेय का दार्शनिक प्रमेय जैसा रोचक एवं तर्क पुरस्कार निरूपण यह प्रस्तुत ग्रंथकार की एक भेंट हो सकती है। संक्षेप में आगमिक और दार्शनिक प्रमेयों का सुभग समन्वय करके अपने समक्ष प्रस्तुत है ग्रन्थराज जैन तर्कपरिभाषा। न्याय-वैशेषिक मत में ज्ञान का स्वरूप नैयायिक मीमांसकों की तरह ज्ञान को परोक्ष नहीं किन्तु प्रत्यक्ष ही मानते हैं किन्तु वो भी ज्ञान को स्वप्रकाशक नहीं मानते। जैसे घट का ज्ञान होने के बाद ही 'घटज्ञानवानहं' 106 अर्थात् मुझे घट का 'ज्ञान हुआ है, ऐसा मानस प्रत्यक्ष होता है, उसे अनुव्यवसायज्ञान कहते हैं। प्रथम ज्ञान व्यवसायात्मक होता है, जैसे-तीक्ष्ण सुई भी अपने को तो नहीं भेद सकती। कैसी भी कुशल नर्तकी अपने कंधे पर तो नहीं चढ़ सकती, ऐसे ही कैसा भी ज्ञान अपने आप तो नहीं जान सकता। मात्र घटादिरूप विषय को ही जान सकता है। वो ज्ञान तो दूसरे ज्ञान से ही होता है। वैशेषिक की भी मान्यता लगभग ऐसी ही है। उक्त बात का खण्डन करके उपाध्याय कहते हैं कि मीमांसक, वैशेषिक, नैयायिक की उक्त मान्यता सही नहीं है। वास्तव में ज्ञान स्व पर उभय का निश्चयात्मक होता है। प्रदीप के दृष्टान्त से इस बात का समर्थन होता है। जैसे प्रदीप पट पर आदि वस्तु को प्रकाशित करता है तो वो स्वयं भी प्रकाशित होता है। उनके प्रकाशन के लिए अन्य प्रदीप की आवश्यकता नहीं है वैसे ही ज्ञान भी अर्थ के साथ-साथ स्वयं प्रकाशित होता है। उनके लिए ज्ञानान्तर की आवश्यकता मानना युक्तिसंगत नहीं है। मीमांसाकादि की उक्त मान्यता में निरसन के लिए एवं ज्ञान के स्वप्रकाशयत्व की सिद्धि के लिए जैनदर्शन अनुमान प्रमाण देता है। ___ ज्ञानं स्वव्यवसायि परव्यवसायि त्वान्यथाऽनुपततेः प्रदीपवत् / 106 जो स्व को नहीं जानता वह पर को भी नहीं जानता। जो पर को जानता है, वो स्व को भी जानता है। जैसे प्रदीप इस प्रकार सिद्ध होता है कि सर्व ज्ञान स्व-पर उभय का निश्चायक होता है। 45 www.jainelibrary.org Jain Education International For Personal Private Use Only
SR No.004261
Book TitleMahopadhyay Yashvijay ke Darshanik Chintan ka Vaishishtya
Original Sutra AuthorN/A
AuthorAmrutrasashreeji
PublisherRaj Rajendra Prakashan Trust
Publication Year2014
Total Pages690
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size20 MB
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